________________
मरण से जीव चारों गति के अनन्त भव बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र में और भी पाँच प्रकार के मरण बताये हैं - १) आवीचिमरण (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव से ५ प्रकार हैं) २) अवधिमरण (देश और सर्व से दो भेद हैं), ३) आत्यन्तिक मरण, ४) बाल मरण और ५) पंडित मरण। पंडित मरण तीन प्रकार का माना गया है - भक्त प्रत्याख्यान मरण, इंगित मरण और पादोपगमन मरण। ये तीनों ही प्रकार के मरण 'निर्हारिम' और 'अनिर्हारिम' से दो-दो प्रकार के हैं। पंडित मरण का स्वरूप आगे स्पष्ट करेंगे। इन सभी प्रकार के भेदों को एकत्रित करके प्रवचनसारोद्धार में सत्तरह प्रकार के मरण बताये हैं। कहीं कहीं नामों में थोड़ी सी भिन्नता नजर आती है। भगवती आराधना में १) पंडित-पंडित मरण, २) पंडित मरण, ३) बाल पंडित मरण, ४) बाल मरण और ५) बाल-बाल मरण ऐसे पाँच भेद मिलते हैं। इस प्रकार आगम एवं अन्य ग्रंथों में मरण के अनेक प्रकार बताये हैं। २७७ इन सभी मरण के भेदों में पंडित मरण ही श्रेष्ठ माना गया है।
पंडित मरण का क्रम क्रमपूर्वक की गई साधना ही जीवन विकासगामी बनाती है। क्रमविहीन साधना असफल बनती है जब कि क्रमसहित साधना चिरस्थायी और सफल बनती है। साधना का क्रम है प्रथम प्रव्रज्या ग्रहण करना, शिक्षा ग्रहण करना, सूत्रार्थ करना, विविध तप एवं प्रतिमाओं को ग्रहण करना, तदनन्तर शरीर की क्षीणता को देखकर गुरु समीप क्रमशः भक्त प्रतिज्ञा, इंगित एवं पादोगमन मरण को स्वीकार करें। इन तीनों का स्वरूप इस प्रकार
१) भक्त परिज्ञा - (भक्त प्रत्याख्यान) मरण का २७८ स्वरूप : साधक आत्मा शरीर की ममता और कषाय की क्षीणता होने पर अंतिम समय समीप आया जानकर गुरु आज्ञा से सर्वप्रथम निर्दोष भूमि का निरीक्षण-परीक्षण करता है। चाहे वह भूमि वन में हो, बस्ती में हो या अन्य कहीं भी हो। भूमि परीक्षण के बाद उस स्थान पर शय्या बिछाये। समस्त जीवों एवं अपने साथियों से क्षमापना करे। तदनन्तर गुरु साक्षी अथवा वे न हों तो अर्हन्त भगवन्त की साक्षी से पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पूर्व कृत, कारित, अनुमोदित सर्व पापों की निश्चल भावों से आलोचना करे। बाद में मरणपर्यंत स्थिर रहनेवाले व्रत की आराधना करे। इस व्रत में तीन या चार प्रकार के आहार का यावज्जीवन तक त्याग किया जाता है। इसे ही 'भक्त प्रत्याख्यान' मरण कहते हैं। इस अवस्था में साधक 'मध्यस्थ भावना', 'केवल निर्जरा की भावना', 'समाधि भावना', 'बाह्य-आभ्यन्तर उपाधि का त्याग', 'अंतःकरण विशुद्धि' इन गुणों से शोभित होता है और अंतिम श्वासोच्छ्वास तक आत्मध्यान में लीन रहता है। कर्म क्षय करके सिद्ध गति प्राप्त करता है और यदि कर्म शेष रह जाये तो स्वर्ग में जाता है। इस मरण को सप्रतिकर्म कहते हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
१७१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org