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१) संलेखना (भक्त परिज्ञा, इंगिणी और पादोपगमन) और २) जिनकल्प साधना, परिहार विशुद्ध कल्प साधना अथवा यथालन्दिक कल्प साधना। इन दोनों प्रकार की विशिष्ट साधनाओं से कर्मदलिकों को क्षय करने का प्रयत्न किया जाता है।
संलेखना साधना पद्धति ___ यह जैन साधना विधि की एक प्रक्रिया है। 'संलेखना' जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है। संसारी जीव में ही जन्म-मरण का चक्रव्यूह सतत चलता है। उससे मुक्ति पाने के लिये मुमुक्षु साधक अंतिम समय निकट आया जानकर संलेखना करता है। 'सत्' का अर्थ -सम्यक् और लेखना का अर्थ कृश करना है। जो शरीर (तनु) और कषाय को पतला करता है, वह संलेखना है- २७२ काय को कृश करने का अर्थ है शरीर का ममत्व भाव कम करना। ममकार और अहंकार अन्तर्निरीक्षण में बाधक है। संलेखना दो प्रकार की हैआभ्यन्तर और बाह्य। आभ्यन्तर संलेखना का संबंध क्रोधादि कषायों से और बाह्य संल तना का संबंध शरीर से है। इन दोनों प्रकार में वृद्धि करने वाले कारणों को कृश करना ही संलेखना है।२७३ कषाय के कृश हुए बिना परिणाम शुद्ध नहीं हो सकते और परिणाम शुद्ध हुए बिना ध्यान नहीं हो सकता। ध्यानावस्था में कषाय और शरीर के ममत्व का अभाव होना चाहिये। इसे समाधिमरण, पण्डितमरण, संथारा और संस्तार भी कहते हैं। इहलौकिक पारलौकिक समस्त कामनाओं (इच्छाओं) का त्याग करके प्रशांत चित्त से आत्मचिंतन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना ही संलेखना या समाधिमरण है।२७४ मरण का बोध कराने के लिए 'मारणांतिक' शद का प्रयोग किया गया है। जिसका अंत क्षण समाधि भाव में व्यतीत होता है वह 'मारणांतिक' कहलाता है।२७५ संलेखना सभी व्रतों और चारित्र की संरक्षिका होने कारण 'व्रतराज' के नाम से प्रसिद्ध है। २७६
मरण के भेद प्रभेद आगम एवं अन्य ग्रन्थों के अनुसार मरण के दो, पाँच, बारह, सत्तरह भेद बताये हैं। उनके भेद प्रभेद भी अनेक किये गये हैं। किन्तु सत्तरह प्रकार के मरण में अन्य सभी भेद समाविष्ट हो जाते हैं। संसार में मरण मुख्यतः दो ही प्रकार का होता है - अज्ञान मरण (बाल मरण), और ज्ञान मरण (पंडित मरण)। इन्हें ही आगम भाषा में अकाम (बालमृत्यू) और सकाम (ज्ञानर्भितमृत्यु, पंडितमृत्यु) मरण कहते हैं। मृत्यू, मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये सभी एकार्थवाची शद हैं। भगवती सूत्र में बाल मरण के बारह प्रकार बताये हैं-१) बलन्मरण, २) वसट्टमरण-वसातैमरण, ३) अन्तशल्यमरण, ४) तद्भव मरण, ५) गिरी-पतन मरण, ६) तरु-पतन-मरण, ७) जल-प्रवेश मरण, ८) ज्वलन प्रवेश मरण, ९) विष भक्षण मरण, १०) सत्थोवाडण (शस्त्रोद्पाटन) भरण, ११) वेहानस मरण और १२) गिद्धपिट्ठ मरण (गृध्रपृष्ठ) मरण। इन बारह प्रकार के
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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