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विधान है। जैसे कि औरणिक (ऊन), औष्ट्रिक (ऊंट के), सानक (सन के) वच्चकचिप्पक (तृण विशेष) और मुंजचिप्पक (मुंज की कुट्टी से)। सादा और निर्दोष वस्त्र ही ग्रहण किया जाता है।
'अचेल' शब्द में रहे हुए 'अ' का अर्थ है अभाव और अल्प। अचेलक मुनि सर्व वस्त्रादि का त्यागी एवं अल्प मूल्य वाले वस्त्र धारक होता है। वह द्रव्य और भाव परिग्रह का त्यागी होता है। अनुकूल प्रतिकूल परिषहों को समभाव से सहन करने वाला होता है। यदि अचेलक को लन्जा का अनुभव हो तो वह कटिबंधन धारण कर सकता है।
इस प्रकार सूत्रकालीन स्थविरकल्पकों के सचेल अचेल साधकों के (मुनियों के) वर्णन के बाद भाष्यकालीन स्थविरों के उपकरणों का वर्णन करते हैं। उनके उपकरणों में कुछ वृद्धि पायी जाती है, जिसका मुख्य कारण देशकाल की परिस्थिति है। पहले तीन या चार वस्त्र, कटिबंध तथा एक पात्र रखने की परंपरा थी। कटिबंध नामक छोटा कपड़ा कमर पर लपेटा जाता था। उसे 'अग्रावतार' भी कहते थे। वर्तमानकाल में 'चोलपट्टा' के नाम से प्रसिद्ध है। आर्यरक्षित आचार्य ने देश कालादि परिस्थिति को लक्ष्य में रखकर वर्षाकाल में
और एक 'पात्रक' रखने की आज्ञा प्रदान की। झोली में भिक्षा लाने की पद्धति उसी समय से प्रारंभ हुई। इसलिए भाष्यकालीन स्थविरों के उपकरणों की संख्या चौदह बताई गई हैजो निम्नलिखित हैं-२७१ १) पात्र, २) पात्रबंध, ३) पात्र स्थापन, ४) पात्र केसरिका (पात्रप्रमार्जनिका), ५) पटल, ६) रजस्त्राण, ७) गोच्छक, (गुच्छक) ये सात प्रकार 'पात्रनियोग' पात्रपरिकरभूतपात्ररक्षक उपकरण हैं। ८-९) प्रच्छादक = दो सोत्रवस्त्र (चद्दरें), १०) ऊनीवस्त्र (कम्बल), ११) रजोहरण, १२) मुखवस्त्रिका, १३) मात्रक और १४) चोलपट्टका यह उपधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन प्रकार की है। आगे चलकर जो कुछ उपकरण बढ़ाये गये वे 'औपग्रहिक' कहलाये। औपग्रहिक उपधि में संस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और दंडक ये खास उल्लेखनीय हैं। ये उपकरण श्वेतांबर मुर्तिपूजक मुनियों के पास ही होते हैं।
दिगम्बर परम्परानुसार स्थविरकल्पी मुनि के लिए पंचवस्त्र त्याग, अकिंचनता, प्रतिलेखन क्रिया, पंच महाव्रतधारी, खड़े-खड़े भोजन लेना, एकाशन करना, हाथ में ही खाना (कर पात्र), भिक्षा की याचना नहीं करना, बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार के तप करना, षडावश्यक, भूमिशयन, केशलुंचन आदि बातों का विधान है।
__ स्थविरकल्प स्थिति की सम्यक आराधना करने पर साधक अंतिम समय समीप आया जानकर योग्य शिष्य को अपना पद प्रदान करके भगवान महावीर के द्वारा कथित विशिष्ट मार्ग का अनुष्ठान करने के लिये तत्पर होते हैं। वह अनुष्ठान दो प्रकार का है -
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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