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मुखमार्जन-शरीरसम्बाधनादि कारणों से सप्रतिकर्मणि का स्वीकार करते हैं। स्थविरकल्पी उत्सर्ग मार्ग से तीसरे प्रहर में गोचरी जाते हैं। किन्तु अपवाद मार्ग में अकाल में जा सकते
दुषम काल में संहनन एवं गुणों की क्षीणता के कारण मुनि नगर और ग्राम में रहने लगे हैं। वे समुदाय में रहकर विचरण करते हैं। शक्ति के अनुसार धर्मप्रभावना करते हैं। भव्यात्माओं को दीक्षा देते हैं। स्थविरकल्प स्वीकार करने के पहले जिन कर्मों को हजार वर्षों में क्षीण किया जाता या उन्हें कल्प स्वीकार करने पर एक वर्ष में क्षीण कर सकते हैं। वे सत्रह प्रकार के संयम पालक होते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र परंपरा का विच्छेद नहीं होने देते। वृद्धावस्था में स्थिरवास करते हैं। इस प्रकार स्थविरकल्पक मुनि ज्ञान, ध्यान और तप की प्रभावना करते हैं।२६८
श्वेतांबरानुसार स्थविरकल्पकों को दो भागों में विभाजित किया गया है-२६९ सूत्रकालीन और भाष्यकालीन। सूत्रकालीन स्थविरकल्पी दो प्रकार के हैं-२७० सचेल और अचेल। जो वस्त्रधारी श्रमण होता है उन्हें 'सचेल' कहते हैं। सचेल परंपरानुसार श्रमण के लिए बहत्तर हाथ वस्त्र एवं श्रमणियों के लिये छियानवे हाथ वस्त्र का विधान है। आचारांगसूत्र में एक वस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी, त्रिवस्त्रधारी, चार वस्त्रधारी श्रमणों का वर्णन है। तीन वस्त्रधारी के लिए तीन संघाटिका, चोलपट्टक, आसन, झोली, जल छानने का वस्त्र, मुखवस्त्रिका, रजोहरण के दण्डी पर लगने वाला वस्त्र, मांडलिक वस्त्र, स्थंडिल भूमि की झोली, इन सब के लिए श्रमण को बहत्तर हाथ वस्त्र का विधान है। भिक्षुणी के लिये चार संघाटिका का विधान इस प्रकार है - एक संघाटिका दो हाथ की, जो उपाश्रय में ही पहनी जाती है, दो संघाटिकाएं तीन-तीन हाथ की, उनमें से एक भिक्षा के लिए जाते समय और एक शौच को जाते समय पहनी जाती है। चार हाथ की संघाटिका धर्म सभा में जाते समय धारण की जाती है। 'संघाटिका' या 'संघाटी' का अर्थ साड़ी और श्रमणश्रमणी की भाषा में 'चद्दर' कहते हैं। टीकाकारों ने शरीर पर धारण करनेवाले वस्त्र को संघाटिका कहा है। इन वस्त्रों का उपयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है। आचारांग में वस्त्रों की सूची हैं - जंगिय या जांघिक (सन से निर्मित कम्बलादि), भंगिय (वृक्ष के तंतु से निर्मित), साणिय (सन से बने), पोत्तग (ताडादि वृक्षों के पत्तों से बने), खोमिय (कपाल से निर्मित), तूलकड़ (आकादि की रुई से निर्मित)। स्थानांग और बृहकल्प सूत्र में तूलकड़ के स्थान पर 'तिरीडपट्ट' नाम मिलता है। बृहत्कल्प भाष्य में 'कंचुक' (अढ़ाई हाथ लंबा व एक हाथ चौड़ा), उकच्छिय (डेढ़ हाथ का वस्त्र जिससे छाती, दक्षिण पार्श्व व कमर देंकी जाती है, वाम पार्श्व की ओर इसकी गांठ लगती है), खण्डकर्णी (चार हाथ लंबा और चौकोर वस्त्र होता है) तथा दीक्षित साधक के लिए रजोहरण, गोच्छक और परिग्रह (पात्र) एवं तीन वस्त्र . का विधान है। रजोहरण के लिए पांच प्रकार के धागों का
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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