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प्रायश्चित्त, कारण प्रतिकर्मणि और मक्तपन्थाश्च भजनया" इन १९ दृष्टिकोण से कराया जाता है२६७"- स्थविरकल्पिक मुनि का जन्म एवं कल्प ग्रहण कर्मभूमि में होता है। पर देवादि द्वारा संहरण करने पर वे अकर्मभूमि में भी प्राप्त हो सकते हैं। अवसर्पिणी काल में उत्पन्न होनेवाले का तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में जन्म होता है और स्थविरकल्प इन्ही आरों में स्वीकार किया जाता है। यदि उत्सर्पिणी काल में उत्पन्न हुए हों तो दूसरे, तीसरे तथा चौथे आरे में जन्म लेते हैं और स्थविरकल्प तीसरे चौथे आरे में स्वीकार करते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय इन दो चारित्र में ही वर्तमान मुनि स्थविरकल्प स्वीकार करते हैं, यथाख्यात चारित्र (संयम) तक भी जा सकते हैं। वे नियमतः तीर्थ में ही रहते हैं। जघन्य आठ वर्ष की अवस्था में और उत्कृष्ट गृहस्थ अथवा साधु पर्याय की कुछ न्यून करोडपूर्व में इस कल्प को ग्रहण करते हैं। प्रवज्या पर्याय जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। परन्तु मरण पर्यंत की उत्कृष्ट पर्याय देशो न्यून पूर्व कोटि भी है। अपूर्व श्रुताध्ययन स्थविरकल्प स्वीकारने पर मरते भी हैं और नहीं भी मरते हैं। तीनों वेदों में (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंक वेद) इसे स्वीकार किया जाता है। बाद में अवेदी भी हो सकते हैं। ये स्थितास्थितकल्प वाले होते हैं। कल्प स्वीकारते समय द्रव्य और भाव लिंग दोनों ही होते हैं। आगे भावलिंग निश्चय ही होता है। कल्प स्वीकारते समय प्रशस्त तीन लेश्याएं (तेज, पद्म, शुक्ल) होती हैं। बाद में छहों लेश्याएं होती हैं। किन्तु अप्रशस्त लेश्या में अधिक समय तक नहीं रहते तथा वे लेश्याएं अति संक्लिष्ट भी नहीं होती। धर्मध्यान में ही कल्प स्वीकार किया जाता है। बाद में आर्त-रौद्रध्यान भी हो सकता है किन्तु वे निरनुबंधक तथा कुशल परिणामों की प्रधानता वाले होते हैं, लेश्यानुसार ध्यान में तरतमभाव पैदा होता है। भाव लेश्यानुसार ही प्रशस्ताप्रशस्त ध्यान की उपलब्धि होती है। स्थविरकल्पकों की जघन्य संख्या एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (९०००) होती है तथा पूर्व स्वीकृत के अनुसार यह संख्या जघन्य और उत्कृष्ट कोटिसहस्रपृथक्त्व भी होती है। पन्द्रह कर्मभूमि में उत्कृष्ट इतने ही स्थविर कल्पी प्राप्त हो सकते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल भावानुसार अभिग्रह धारण करते हैं। द्रव्य से भिक्षादि के लिए गमन का अभिग्रह करना, क्षेत्र से आठ (ऋज्वी, गत्वाप्रत्यागतिका, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, पेडा, अद्धपेडा, अभ्यन्तर शम्बूका, बहिःशम्बूका) प्रकार के गोचर भूमि का अभिग्रह करना, काल से सबेरे, दोपहर एवं शाम को जाने का अभिग्रह करना। भाव से गोभिक्षा लेने का (निक्षिप्तचरका, संख्यादत्तिका, दृष्टलाभिका, पृष्टलाभिका आदि का) अभिग्रह करना है। प्रव्रज्या अथवा मुण्डपना स्वीकार करनेवाले स्थविरकल्पी को छह प्रकार के सचित्त द्रव्य कल्पनीय हैं। यथा शिष्यों को दीक्षा देना, उपदेश देना, अन्य स्थान पर गये को पुनः दीक्षा देना या अन्य संप्रदाय के गीतार्थ आचार्य से दीक्षा देने की प्रार्थना करना। स्थविरकल्पियों को प्रमाद के कारण लगनेवाले पापों का प्रायश्चित्त 'आलोचना और प्रतिक्रमण' दिया जाता है। स्थविरकल्पी किसी विशिष्ट कारण में अपवाद मार्ग का सेवन करते हैं। ग्लान, रोगी, आचार्यादि की सेवा के लिए अथवा धर्म की कथा के लिए जाने पर पादधावन
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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