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विशिष्ट साधना पद्धतियाँ
अब तक सामान्य जैन साधना पद्धति पर विचार किया, अब विशिष्ट श्रमणों की साधना पद्धति पर विचार कर रहे हैं।
सामान्य साधना पद्धतियाँ श्रमण के लिए मूल भूमिका रूप है। विशिष्ट आगमकालीन साधना पद्धतियाँ अनेक प्रकार की हैं, किन्तु विशेषतः श्रमणों के लिए मुख्य दो ही प्रकार बताये हैं- जिनकल्प और स्थविरकल्प |
पूर्ण समाधि एवं शांति का इच्छुक साधक ही संयम का परिपालन कर सकता है। राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परीषह, उपसर्ग एवं आठ कर्मों को जीतने वाला मुनि जिनकल्प कहलाता है। जिनकल्प स्थविर कल्प से ही निकला हुआ है। अतः पहले स्थविरकल्पी साधना पद्धती पर विचार करेंगे।
स्थविरकल्प साधना पद्धति
जो संघ में रहकर साधना करता है। उसकी आचार संहिता को स्थविर कल्प स्थिति कहते हैं।२६४ वे सर्व प्रथम अपने आपको तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल इन पाँच तुलाओं से तोलते हैं । २६५ स्थविर कल्प मुनि के आचार संहिता का क्रम निम्नलिखित है । २६६ १) प्रवज्या, २) शिक्षापद, ३) अर्थग्रहण, ४) अनियतवास, ५ ) निष्पत्ति, ६) विहार और, ७) समाचारी ।
आचार गुणसम्पन्न गीतार्थ गुरु सर्वप्रथम शिष्य को विधिपूर्वक आलोचना कर के तदनन्तर द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भावानुसार प्रव्रज्या (दीक्षा) मंत्र देते हैं। दीक्षा मंत्र देने के बाद शिक्षा का दान देते हैं। शिक्षा के दो प्रकार होते हैं- १) ग्रहण शिक्षा और २ ) आसेवन शिक्षा | ग्रहण शिक्षा में शास्त्राध्ययन कराया जाता है और आसेवन शिक्षा पद्धति में पडिलेखना आदि क्रिया का बोध कराया जाता है। सूत्रार्थ का ज्ञाता हो जाने पर ही मुनि को योग्यतानुसार आचार्य पद दिया जाता है। आचार्य पद देने के पहले बारह वर्ष तक अनियतवास- ग्रामानुग्राम विचरण कराया जाता है। अयोग्य शिष्य के लिए यह नियम नहीं है । देशाटन से तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि एवं निर्वाणभूमि को देखने से साधना में स्थिरता आती है। विभिन्न भाषा एवं आचार का ज्ञान होता है। देशाटन से वह आचार्य पदयोग्य शिष्य संपदा से संपन्न होता है तथा विभिन्न श्रुतज्ञानी आचार्यों के दर्शन से सूत्रार्थ विषयक एवं समाचारी का विशेष ज्ञाता होता है। इस प्रकार बारह वर्ष तक देशदर्शन ‘अनियतवास' कराया जाता है। बहुशिष्य संपदा प्राप्त होनेपर आचार्य पद दिया जाता है। तदनन्तर वह स्व पर कल्याणार्थ प्रवचनप्रभावना करता है।
स्थविरकल्पिक मुनियों की चर्या आदि का ज्ञान " क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्रज्या, मुण्डपना,
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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