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________________ और सर्वउत्तरगुण प्रत्याख्यान (साधु के पांच समिति और तीन गुप्ति)। और भी प्रत्याख्यान के दस भेद हैं - २५८१) अनागत (पर्युषणादि में किया जानेवाला विशिष्ट तप), २) अतिक्रान्त (वैयावृत्य में लगे दोषों का प्रायश्चित, उपवास को अपर्व दिन में करना), ३) कोटिसहित (उपवासादि जिस दिन पूर्ण हो उस दिन पारणा न करके दूसरे दिन करना), ४) नियन्त्रित (प्रायः चौदहपूर्वधर, दस पूर्वधर एवं जिनकल्पी मुनि ही करता है, आज यह परंपरा नहीं है), ५) साकार (अपवाद की छूट), ६) निराकार, ७) परिमाणकृत (दत्ति, ग्रास, भोज्य, द्रव्य एवं गृहादि संख्या का परिमाण), ८) निरवशेष (चारों आहार का त्यांग, ९) सांकेतिक और, १०) अद्धा प्रत्याख्यान (समय विशेष की मर्यादा)। इन दस प्रत्याख्यानों में अद्धा प्रत्याख्यान के नवकारसी, पौरुषी, पुरिमड्ढं (पूर्वार्ध), एकासन, एक स्थान, आयंबिल, उपवास, दिवसचरियं, अभिग्रह और निर्विकृतक (नीवी) ऐसे दस प्रत्याख्यान हैं।२५९ 'अद्धा' काल को कहते हैं। इन दस अद्धा प्रत्याख्यान के क्रमशः दो, छह, सात, आठ, पाँच, चार, पांच अथवा चार, नौ ऐसे आगार रखे गये हैं।२६० प्रत्याख्यान से अन्तशुद्धि होती है। शास्त्र में पांच अथवा छह प्रकार की शुद्धियाँ बताई हैं-२६१ १) श्रद्धान शुद्धि, २) ज्ञान शुद्धि, ३) विनय शुद्धि, ४) अनुभाषणाशुद्धि, ५) अनुपालनाशुद्धी और ६) भाव शुद्धि। षडावश्यक की साधना श्रमण श्रमणी श्रावक श्राविका सबके लिए समान बताई गई है। किन्तु श्रमण श्रमणी के लिए अनिवार्य ही है। चारित्र एवं उसके पोषक अंगों में ध्यान का महत्त्व __ श्रावक के बारह व्रत और पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति साधना मार्ग में चन्द्रमा के समान निर्मल हैं। इन सबके मूल में अहिंसा और समता को प्रधानता दी गई है। साम्यभाव पर आरूढ हुआ मुनि निर्निमेष मात्र (पलभर) में कमों को जीतता है किन्तु समभावरहित मुनि कोटि भव तक तप करने पर भी उतने कर्मों को क्षय नहीं करता जितना समभावी मुनि कमों को क्षय करता है।२६२ वह साधना काल में अपनी चर्या सर्वज्ञकथित आज्ञानुसार प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में भिक्षार्थगमन और चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करता है। स्व का अध्ययन करने पर ही ध्यानावस्था आती है। ध्यान से संवर निर्जरा की स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि मोक्ष का मार्ग संवर निर्जरा है। इन दोनों का उपाय तप है। तप का प्रधान अंग ध्यान है। इसलिए ध्यान मोक्ष का हेतु है, सकल गुणों का स्थान है, समस्त साधनाओं का साधन है, दृष्ट अदृष्ट सुखों का कारण है, अत्यंत प्रशस्त है। अतः वह चारित्र साधना एवं उसके सहाय्यक अंगों में सर्वकाल में श्रद्धेय है, ज्ञातव्य है और ध्यातव्य है।२६३ जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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