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________________ प्रतिक्रमण, ४) यावत्कथित (महाव्रतादि रूप में) प्रतिक्रमण, ५) यत्किचिन्मिथ्या (प्रमादवश लगे पापों का 'मिच्छामि दुक्कडं') प्रतिक्रमण और ६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण। सामान्यतः प्रतिक्रमण दो प्रकार का ही है।२५२ द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण। मुमुक्षु साधक के लिये भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है; द्रव्य प्रतिक्रमण नहीं। उपयोग शून्य एवं कीर्ति आदि के लिये किया गया प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है और सम्यग्दर्शन गुणों से संपन्न किया हुआ प्रतिक्रमण ही भाव प्रतिक्रमण है। भावप्रतिक्रमण से ही आत्मशुद्धि होती है। भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम दिये हैं-२५३ प्रतिक्रमण, प्रतिचरणा, प्रतिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शुद्धी। भाव की दृष्टि से सभी का एक ही अर्थ है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर कालीन साधक के लिए उभयकालीन (दैवसिक, रात्रिक-रायसी) प्रतिक्रमण का विधान नियमतः है जब कि शेष मध्य २२ तीर्थंकरों के साधकों को पाप लगने पर प्रतिक्रमण करने का विधान है।२५४ ५) कायोत्सर्ग-आवश्यकः कायोत्सर्ग को अनुयोगद्वार सूत्र में व्रणचिकित्सा कहा है। २५५ व्रण का अर्थ घाव है। कायोत्सर्ग ध्यान का अंग है तथा तप का भेद है। इस पर आगे वर्णन करेंगे। ६) प्रत्याख्यान आवश्यक : जीवन में त्याग आवश्यक है। त्याग से ही जीवन चमकता है और स्फटिक सा निर्मल होता है। इसके लिए आगम प्रत्याख्यान शब्द का प्रयोग किया है। अशुभ योग से निवृत्ति पाकर शुभ प्रवृत्ति करने की क्रिया ही प्रत्याख्यान है। "प्रत्याख्यान करने से संयम की आराधना होती है। संयम से संवर की साधना होती है, संवर से तृष्णा का नाश होता है और तृष्णा के नाश से अनुपम उपशम भाव (माध्यस्थ परिणाम) की प्राप्ति होती है और अनुपम उपशम भाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है तथा चारित्र धर्म प्रगट होता है। चारित्र धर्म की आराधना से कमों की निर्जरा होती है, निर्जरा से अपूर्व करण की प्राप्ति होती है और उस अपूर्वकरण से केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होकर शाश्वतसुखरूप सिद्धि मिलती है।"२५६ प्रत्याखान को 'गुणधारण' भी कहा गया है। प्रत्याख्यान के भेद मुलतः प्रत्याख्यान के दो भेद हैं - २५७ मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान। इसमें मूल गुण प्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं-सर्वगुण प्रत्याख्यान (साधु के पांच महाव्रत) और देशगुण प्रत्याख्यान (श्रावक के पाँच अणुव्रत)। उत्तरगुण प्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं-देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान (श्रावक के तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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