SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करने से आत्मशुद्धि होती है और अवन्दनीय को वन्दन करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती। वन्दन के दो प्रकार हैं - द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन। द्रव्य वन्दन कर्ता मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि हो सकता है। किन्तु भाववन्दन कर्ता सम्यग्दृष्टि ही होता है। आवश्यकचूर्णि में श्रीकृष्ण और वीरक कौलिक तथा कृष्ण के पुत्र शाम्ब और पालक के उदाहरण से द्रव्य और भाव वन्दन का स्वरूप स्पष्ट किया है। भाव वन्दन ही आत्मशुद्धि का प्रशस्त मार्ग है। द्रव्य वन्दन तो अभव्य भी कर सकता है। द्रव्य की अपेक्षा भाव का अधिक महत्त्व होता है। अहं का नाश होने पर अहं को वन्दन होता है। वन्दना से नम्रता और नम्रता से नीच गोत्र का बंध नहीं होता है। इस 'वन्दना' आवश्यक पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विचार किया जाता है। २४६ ४) प्रतिक्रमण आवश्यक :- त्रिकरण और त्रिविधयोग से किये गये पापों की आलोचना एवं निंदा करना प्रतिक्रमण है। शुभयोगों से अशुभयोगों में गये हुये अपने आपको पुनः शुभयोग में प्रवृत्त करना प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय इन दोषों से हटकर सम्यक्त्व, विरति, प्रमाद, क्षमादि गुण एवं शुभ भावों में रमण करना ही प्रतिक्रमण है। साधक प्रमाद के कारण ही अशुभ योग में रमण (फंस) करता है, उनसे अपने आपको हटाकर स्वभाव में रमण करना ही प्रतिक्रमण है।औदयिक भाव संसार का कारण और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष का कारण है। इसलिए क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ मुनि (साधक) को पुनः क्षायोपशमिक भाव में लौटाना प्रतिक्रमण है। संसारवर्धक नरक तिर्यंच गति के कारणों की निंदा-गर्दा करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है पापों से डरना। पापप्रवृत्तियों से पीछे हटना ही प्रतिक्रमण है।२४७ प्रतिक्रमण के भेद आवश्यक नियुक्ति में काल के निमित्त से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण बताया है२४८. भूतकालिक प्रतिक्रमण, वर्तमानकालिक (संवर, साधना) प्रतिक्रमण और भविष्यकालिक (प्रत्याख्यान द्वारा दोषों से बचना) प्रतिक्रमण। विशेष काल की अपेक्षा से पांच प्रकार का प्रतिक्रमण है-२४९ १) दैवसिक, २) रात्रिक, ३) पाक्षिक, ४) चातुर्मासिक और ५) सांवत्सरिक। आवश्यक नियुक्ति में चार प्रकार के प्रतिक्रमण का विवेचन है-२५० १) हिंसक प्रवृत्ति से लगे दोषों का प्रतिक्रमण, २) शास्त्रकथनानुसार पालन न करने से लगने वाले दोषों का प्रतिक्रमण, ३) जिनवचन में अश्रद्धा उत्पन्न होने से दूषित दोषों का प्रतिक्रमण, ४) आगम विरुद्ध वचन प्रतिपादन करने से प्रतिक्रमण करना। स्थानांगसूत्र में छह प्रकार का प्रतिक्रमण वर्णित है - २५१ १) उच्चार (बड़ीनीत, मल विसर्जन) प्रतिक्रमण, २) प्रस्रवण (लघुनीत, मूत्र विसर्जन) प्रतिक्रमण, ३) इत्वर (दैवसिक, पाक्षिक) जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy