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________________ आवश्यक क्रिया प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के श्रमणों के लिये नियमतः सबेरे और सन्ध्याकाल में करने के लिये अवश्य ही कहा है। क्योंकि इन दोनों तिथंकर के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म की प्ररूपणा की गई है। २४१ आवश्यक क्रिया आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त करती है। आवश्यक के भेद आगम में मुख्यतः आवश्यक के दो भेद हैं-२४२- द्रव्यावश्यक और भावावश्यक। द्रव्यावश्यक में बाह्य क्रिया पर ही बल दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप साधना में तेज प्रगट नहीं हो सकता। भावावश्यक से ही साधना चमकती है। चित्तशुद्धि साधना में आवश्यक है। अन्तदर्शन से ही चित्तशुद्धि होती है। इसलिये निजात्मा को कर्म मल से शुद्ध बनाने के लिये सामायिक चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान आदि छह आवश्यक का विधान किया गया है।२४३ प्रकारान्तर से इसके छह भेद मिलते हैं-२४ सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणवत्प्रतिपत्ति, स्थलित निन्दना, व्रणचिकित्सा और गुणधारणा। १) सामायिक आवश्यक :- बारह व्रतों में सामायिक मोक्ष का प्रधान अंग माना गया है। आत्मभाव में समता भाव से रमण करना ही सामायिक आवश्यक है। षडावश्यक में यह मंगलरूप है। इसलिए प्रथम सामायिक को रखा है। इस पर विस्तृत रूप से पीछे लिखा गया है, वहाँ देखें। २) चतुर्विंशतिस्तव-आवश्यक :- सावधयोग से निवृत्ति पाने के लिये निरवद्ययोगी की शरण ली जाती है। वे निरवद्ययोगी जैनागम के अनुसार ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्म, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर ऐसे चौबीस तीर्थंकर हैं। वर्तमानकालीन ये चौबीस तीर्थकर हैं। इनकी स्तुति से प्रशस्त भाव एवं शुद्ध परिणामों की प्राप्ति होती है। शुद्ध परिणाम चिरसंचित कर्मों को तृणाग्नि की तरह भस्म कर देती है। चतुर्विंशति के छः भेद हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इन छह भेदों से चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना द्वितीय आवश्यक है।२४५ ३. वन्दना-आवश्यक :- तीर्थंकर देव रूप होते हैं। देव की स्तुति करने के बाद गुरु को वंदन किया जाता है। गुरु जीवन के घडवैया होते हैं। दर्जी, सुतार, सुनार, कुंभार, किसान, माता, पिता आदि सभी का कार्य गुरु करता है। अरिहंत और सिद्ध का दर्शन कराने वाला गुरु है। वेदना से मुक्ति पाने का राजमार्ग है-वन्दना। वन्दना के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं - चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजा कर्म आदि। योग्य वन्दनीय को वन्दन जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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