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________________ संथारे में आहार का अपवाद : 'समाधि मरण में यदि तीव्र क्षुधा वेदनीय कर्म का उदय हो जाय, समाधिभाव न रहे, उस समय प्राण की रक्षा हेतु आहार कवच रूप है। इसलिये अपवाद रूप में आहार कवच का सेवन कराना चाहिये। ऐसे साधक की निंदा करने वाले को चातुर्मास गुरु प्रायश्चित्त आता है। २३२ यतनापूर्वक गीतार्थ मुनि ही अपवाद मार्ग का सेवन करा सकता है अन्य नहीं। इसमें सावधानी अत्यावश्यक है। पशुओं का बंधन - मोचन का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : सामान्यतः भिक्षु आत्म चिंतन में संलग्न रहता है। यदि विहार करते गृहस्थ के घर रुकने का मौका आये तो मुनि कमलवत् निर्लिप्त रहते हैं। बछड़े गाय आदि को बांधने अथवा खोलने का काम वह गृहस्थ के घर नहीं करे - यह उत्सर्ग मार्ग है। किंतु 'आग लगने पर, बाढ़ आने पर, वृकादि हिंसक पशु के आक्रमण होने पर अथवा अन्य किसी विषम स्थिति में पशुओं को बचा सकता है। यह अपवाद मार्ग है । २३३ जो अनुकम्पाभाव से विशिष्ट परिस्थिति में अपनाया जाता है। अतिचार और अपवाद में अन्तर बाह्य व्यवहार में अपवाद को अतिचार मानते हैं। पर यह गलत है। दोनों की कार्यप्रवृत्ति भिन्न-भिन्न है। अतिचार का मार्ग कुमार्ग है, वह अधर्म है तथा संसारवर्धक है जब कि अपवाद का मार्ग सुमार्ग है, वह धर्म है और मोक्षप्रदाता है। अतिचार में दर्प एवं मोहोदय का भाव है। जीवन में विपरीत आचरण को अतिचार कहते हैं। अतः यह त्याज्य है और अपवाद मार्ग ग्राह्य है, क्योंकि वह कर्मक्षय का कारण है । २३४ साधु जीवन में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की साधना संयमरक्षार्थ है। ३) श्रमण समाचारी साधनाकालीन जीवनचर्या में साधक जीवन की आचार संहिता को मर्यादित करने के लिये आगम ग्रन्थों एवं अन्य ग्रंथों में समाचारी ( सामाचारी) का विधान है। सम्यक् आचार ही समाचार या समाचारी है। समाचारी शब्द का प्रयोग चार अर्थों में मिलता है१) समता का आचार, २) सम्यक् आचार, ३) सम आचार, ४) समान (परिमाणयुक्त) आचार। मुनि जीवन का आचार, व्यवहार एवं कर्तव्यता ही समाचारी है। श्रमण जीवन की सारी प्रवृत्तियों का इसमें समावेश है, जो वह अहर्निश करता है । २३५ चौदह पूर्वधारी भद्रबाहु ने समाचारी तीन प्रकार की बताई है२३६- १) ओघ समाचारी, २) दसविध समाचारी और ३) विभाग समाचारी। इनमें ओघ समाचारी का विश्लेषण सात द्वार द्वारा किया गया है२३७- १) प्रतिलेखन, २) पिण्ड, ३) उपधिप्रमाण, ४) अनायतन (अस्थान) वर्जन, ५) प्रति सेवणा- दोषाचरण, ६) आलोचना जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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