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बोलना उत्सर्ग मार्ग है। परंतु इसका भी अपवाद मार्ग है। रास्ते में चलते किसी व्याधादि के पछने पर मौन रहे। यदि मौन भी स्वीकृति में परिणत होता दिखाई दे तो 'जानता हुआ भी नहीं जानता हूं किसी भी पशु आदि को देखा नहीं' ऐसा कहना अपवाद मार्ग है। संयम रक्षा हेतु असत्यवचन पापरूप नहीं होता। यह द्वितीय महाव्रत का अपवादमार्ग है।२२६
अस्तेयव्रत का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : बिना मालिक की आज्ञा से मुनि घास का तिनका भी नहीं उठा सकता। यह उत्सर्ग मार्ग है। पर इसका भी अपवाद मार्ग है। परिस्थिति विकट हो, लंबा सफर हो, अज्ञात गांव में पहुंच गया हो, शीत अधिक हो जिससे वृक्ष के नीचे ठहर नहीं सकता, उचित स्थान न हो, पशुओं का उपद्रव हो, ऐसी स्थिति में बिना आज्ञा लिये ही योग्य स्थान पर ठहर सकता है। बाद में स्थान की आज्ञा ले। यह तृतीयव्रत का अपवाद मार्ग है। २२७
ब्रह्मचर्यव्रत का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : एक दिन के नवजात शिशु का स्पर्श न करना यह उत्सर्ग मार्ग है। किंतु इसका भी अपवाद मार्ग है कि नदी में डूबती हुई अथवा क्षिप्तचित्त भिक्षुणी को श्रमण बचा सकता है। वैसे ही रात्रि में सर्प दंश हुआ हो तो श्रमण श्रमणी से और श्रमणी श्रमण से चिकित्सा करा सकती है (अन्य कोई चिकित्सक न हो तो)। पैर में कांटा गया हो तो भी उनके लिये भी यही अपवाद मार्ग है।२२८ जितना उत्सर्ग का महत्त्व है उतना ही अपवाद मार्ग का भी। पर स्मरण रहे कि अपवाद मार्ग का सेवन संयम रक्षार्थ ही हो, मनचाहे ढंग से न हो; वरना आत्मघातक बन जायेगा।
अपरिग्रहव्रत का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : शास्त्र में बताये हुए साधु साध्वी के लिये पात्रादि धर्मोपकरण की १४ संख्यानुसार उपयोग में लाना ही उत्सर्ग मार्ग है। इसके लिये भी अपवाद मार्ग है। स्थविर के लिये छत्रक, चर्मछेदनक आदि का आवश्यकतानुसार उपधि रखने का अपवाद मार्ग है। ग्लानादि के कारण ऋतुबद्ध और वर्षाकाल के बाद एक स्थान पर रहना भी परिग्रह का कालकृत अपवाद ही है। दूसरों की सेवा हेतु पात्र रखना अपवाद है। विषग्रस्त मुनि को विष निवारणार्थ सुवर्ण घिस कर देना भी अपरिग्रह का अपवाद ही है। ये सब अपरिग्रहव्रत के अपवाद हैं। २२९
. गृह निषद्या का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : बिना प्रयोजन के गृहस्थ के घर बैठना नहीं यह उत्सर्ग मार्ग है। पर इसका भी अपवाद है। वृद्ध, रोगी, तपस्वी किसी विशिष्ट कारणवश गृहस्थ के घर बैठ सकता है। यह अपवाद मार्ग है। २३०
आधा कर्म आहार का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : उत्सर्ग मार्ग में आधाकर्मी आहार दोष युक्त बताया है। परंतु इसका भी अपवाद है कि दुर्भिक्षादि काल में विशिष्ट कारणवश आधाकर्मी आहार ग्राह्य बताया है।२३१ जैन धर्म में अनेकान्त का महत्त्व है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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