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एकमात्र गीतार्थ मुनि ही हो सकता है। गीतार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञाता होता है। उत्सर्ग मार्ग की अपेक्षा अपवाद मार्ग अधिक सजग रहता है। इसलिये अपवाद सेवन का निर्णय गीतार्थमुनि पर रहता है। 'जो आयव्यय, कारण-अकारण, अगाढ़ (ग्लान) - अनागाद, वस्तु-अवस्तु, योग्य-अयोग्य, युक्त-अयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतनाअयतना का सम्यग्ज्ञान रखता है तथा साथ ही साथ कर्तव्य कर्म का फल भी जानता है; वही गीतार्थ कहलाता है। २२३ यदि गीतार्थ न हो तो गुरु, मूल आगम, भाष्य, चूर्णि, टीका एवं अन्य निर्देशक बनते हैं। परंतु ये भी न हो तो स्वयं ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार अपवाद मार्ग का निर्णय ले सकता है। सही निर्णय होना चाहिये, गलत नहीं। इस दशा में साधक पतित नहीं माना जाता है। क्योंकि अपवाद कालीन समय में यदि बाह्य दृष्टि से स्वीकृत पांच महाव्रत आदि व्रतों में यत्किचित् दोष लग जाय तो वह मूल व्रतों की रक्षा के लिये ही है। साधक को संयम की रक्षा करनी है। अपवाद सेवन करने वाले के परिणाम विशुद्ध होने चाहिए। शुद्ध परिणाम ही मोक्ष का कारण है; संसार का नहीं। साधक का देह संयम हेतु होता है। इसलिये संयम हेतु देह का परिपालन हो।२२४ जैन धर्म अन्तरंग शुद्धि पर अधिक बल देता है।
अहिंसा का उत्सर्ग और अपवाद मार्ग : भिक्षु के लिये हरी वनस्पति, का परिभोग और स्पर्श त्याज्य है तथा सचित्त वस्तु एवं जलादि का सेवन तथा स्पर्श वर्जित है। मन, वचन, काय से स्थूल या सूक्ष्म जीवों की किसी भी प्रकार से हिंसा नहीं करना ही प्रथम महाव्रत का (अहिंसाव्रत) उत्सर्ग मार्ग है, परंतु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में इसका भी अपवाद मार्ग है। एक भिक्षु, अन्य कोई सरल मार्ग न होने पर किसी विषम पर्वतादि विकट मार्ग से जाता है। यदि उस मार्ग से पैर फिसल जाय उस समय तरु, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, तृणादि का सहारा लेना अपवाद मार्ग है। सूक्ष्म दृष्टि से सोचने पर यह हिंसा, हिंसा के लिये नहीं है, अपितु अहिंसा के लिये है। गिरने से आर्तध्यान रौद्रध्यान में वृद्धि होती है। ये दोनों ध्यान संसारवर्धक हैं। समाधिभाव को टिकाये रखने के लिए अपवाद मार्ग का सेवन किया जाता है। ऐसे ही वर्षाकाल में भिक्षु अपने निजस्थान से बाहर किसी भी काम के लिए नहीं जाता, यह उत्सर्ग मार्ग है, किन्तु इसका भी अपवाद है - भिक्षु उच्चार (शौच) और प्रस्रवण (मूत्र) के लिए वर्षा में बाहर जा सकता है। इसके अतिरिक्त बाल, वृद्ध एवं ग्लानादि के लिए भिक्षा के हेतु जाना अत्यावश्यक हो तो उचित यतना के साथ वर्षा में गमन कर सकता है। मार्ग में गमन करते समय किसी विशिष्ट कारणवश नदीसंतरण, दुर्भिक्षादि में प्रलम्ब ग्रहण का अपवाद मार्ग है। ये सब अपवाद अहिंसा महाव्रत के हैं।२२५ उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में समाधिभाव की प्रधानता है।
सत्यव्रत का उत्सर्ग और अपवाद मार्ग : भिक्षु को किसी प्रसंग पर झूठ नहीं १५८
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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