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________________ विभिन्न आचार्यों के कथनानुसार उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा इस प्रकार है२२२- 'जो उद्यत विहार चर्या है, वह उत्सर्ग है। उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है। अपवाद का सेवन तो उस समय किया जाता है जब कि उत्सर्ग में रहे हुए साधक यदि ज्ञानादि गुणों का संरक्षण नहीं कर पाता हो। तब अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकते हैं।' द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि की अनुकूलतानुसार साधक द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपान गवेषणादि उचित अनुष्ठान है और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्यसेवन का उचित अनुष्ठान अपवाद है। सामान्यतः प्रतिपादित विधि उत्सर्ग और विशेषतः प्रतिपादित विधि अपवाद है।' मुनिचन्द्रसूरि का कथन है कि समर्थ साधक के द्वारा संरक्षणार्थ जो अनुष्ठान किया जाता है वह उत्सर्ग मार्ग है और असमर्थ साधक द्वारा किया जानेवाला संयम रक्षार्थ उत्सर्ग से विपरीत अनुष्ठान अपवाद है। दोनों पक्षों के विपर्यासरूप अनुष्ठान करना, न तो उत्सर्ग है और न अपवाद है, अपितु संसाराभिनंदी प्राणियों की कुचेष्टामात्र है। सामान्यतः संयम विशुद्धि के लिये नवकोटी शुद्ध आहार ग्रहण करना उत्सर्ग है। किन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि विषयक आपत्तियों से ग्रसित होकर अथवा उस समय अन्य कुछ भी गत्यन्तर न हो तो उसे उचित यतना के साथ अनेषणीय आहारादि ग्रहण करना ही अपवाद है। पर स्मरण रहे कि अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम रक्षा के हेतु होता है। समर्थ साधक के लिये उत्सर्ग स्थिति में जो द्रव्य निषेध किये जाते हैं वे ही द्रव्य असमर्थ साधक के लिये अपवाद मार्ग में ग्राह्य बन जाते हैं। किन्तु दोष नहीं हैं। देश, काल और रोगादि के कारण मानव जीवन में कभी-कभी ऐसी अवस्था आ जाती है कि जिसमें अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाता है। उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों का एक ही लक्ष्य है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के सुमेल से ही साधना प्रशस्त होती है। 'उत्सर्ग' साधना पथ की सामान्य विधि है। इसे छोड़ा भी जा सकता है। किन्तु अकारण और सदा के लिये नहीं। अकारण में उत्सर्ग मार्ग का त्याग करने वाला भगवदाज्ञा का विराधक होता है आराधक नहीं। यों ही अपवाद मार्ग का सेवन करनेवाला स्वयं तो पथ भ्रष्ट होता ही है, किन्तु समाज को भी गलत रास्ते लगाता हैं। उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही संयम मार्ग हैं। अपवाद का सेवन मनमाना नहीं किया जा सकता। इसके सेवन करते समय बहुत सजग रहना पड़ता है। आवश्यकतानुसार ही अपवाद मार्ग का सेवन किया जाता है। इसमें क्षण भर का भी विलंब आत्मघातक बनता है। जब कभी भी साधक के सामने ऐसी कोई विकट परिस्थिति खड़ी हो जाय, अन्य कोई सुभग मार्ग न हो, फलस्वरूप अपवाद अपरिहार्य स्थिति में उपस्थित हो गया हो उस समय यतनापूर्वक अपवाद मार्ग का सेवन करें, अपवाद मार्ग की कालमर्यादा पूर्ण होते ही उसी क्षण उत्सर्ग मार्ग अपना लें ताकि आत्मविराधना (आत्मघात) न हो। अपवाद मार्ग का अधिकारी जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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