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________________ आभ्यन्तर तप क्रमांक में ध्यान के पहले स्वाध्याय को लिया है। आत्मा का चिंतन मनन और निदिध्यासन ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय से चिरसंचित कर्मों का क्षय किया जाता है और ज्ञानावरणीय कर्म का गाढ़ा आवरण नष्ट किया जाता है। स्वाध्याय में प्रमाद को स्थान ही नहीं है। इसमें तो सतत मन को मांजने की प्रक्रिया की जाती है। शास्त्र में स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये हैं - वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। इन पांच प्रक्रियाओं को सतत करने से मन शुद्ध बनता है और यही प्रक्रिया स्वाध्याय है।२२० ५) ध्यान : शोध प्रबंध का शीर्षक ही ध्यानयोग है। इसलिए यहां ध्यान के विषय में विस्तृत वर्णन न करके आगे करेंगे। चित्त को किसी एक विषय पर स्थिर करना ही ध्यान है। आगम में ध्यान के चार भेद हैं - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इनमें प्रथम के दो ध्यान वर्ण्य हैं और अंतिम दो ध्यान के प्रकार उपादेय हैं। ६) व्युत्सर्ग : इसका दूसरा नाम कायोत्सर्ग है। विशिष्ट प्रकार के त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। उठना, बैठना, सोना आदि कायिक क्रियाओं का त्याग करके शरीर को स्थिर करना ही कायोत्सर्ग तप है। कायोत्सर्ग का ही पर्यायवाची शब्द व्युत्सर्ग है। इसके दो भेद हैं- द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग। द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं- गणव्युत्सर्ग, शरीर व्युत्सर्ग, उपधि व्युत्सर्ग और भक्तपान व्युत्सर्ग तथा भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैंकषाय व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म व्युत्सर्ग। इन सब प्रकारों में शरीर व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) तप को ही आभ्यन्तर तप में प्रधानता दी है।२२१ __वासनाओं को क्षीण करने के लिये शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन उपायों से एकाग्र किया जाता है उन्हें तप कहते हैं। तप से आत्मा निर्मल बनती है। इसीलिए तप के बारह भेदों में 'ध्यान' को अधिक महत्त्व दिया गया है। ध्यान ही चित्तशुद्धि की विशिष्ट प्रक्रिया है और आराधना का प्रवेश द्वार है कायोत्सर्ग। इस पर आगे विचार करेंगे। २) जैन संस्कृति की मूलभूत साधना उत्सर्ग-अपवाद मार्ग साधना पद्धति में विधि-निषेध को परमावश्यक माना जाता है, क्योंकि उसके बिना साधना का कोई मूल्य नहीं। फिर भी गौण है। मुख्यतः समाधिभाव, समभाव, कषायशमन, इन्द्रियदमन एवं आत्मशुद्धि के द्वारा साधक विधि-निषेध अथवा उत्सर्गअपवाद मार्ग की साधना से रागादि भावों को नष्ट करके मोक्ष-सिद्धि को प्राप्त करता है। इसलिये साधना के क्षेत्र में प्रवेश पाने वाला साधक 'उत्सर्ग और अपवाद' इन दो अंगों पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करता है। ये दोनों अंग साधना के प्राण हैं। इनमें से एक का भी अभाव हो जाय तो साधना अधूरी रह जाती है। एकांगी साधना विकासगामी न होकर पतनगामी बनती है। १५६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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