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________________ दिया जाता है। मूल प्रायश्चित्त में छद्मावस्था के कारण गुरुतर दोष लगने पर पुनः दीक्षा दी जाती है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में तप की कुछ कालमर्यादा होती है, वह पूर्ण न हो तब तक पुनः दीक्षा नहीं देते। किन्तु तप पूर्ण होते ही दोषी साधु को पुनः गृहस्थ का वेश पहनाकर, बाद में पुनः दीक्षा देते हैं। अंतिम पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान उसके लिये लागू होता है, जिसे गच्छ से बाहर किया हो, जिसने साध्वी या अन्य प्रतिष्ठित स्त्री का शील भंग किया हो, संघ में फूट डाली हो या प्रयत्न किया हो। इसमें साधुवेश एवं स्वक्षेत्र का त्याग करके जिनकल्पी साधक की तरह बारह वर्ष तक गच्छ छोड़कर तप कराया जाता है। दसवां प्रायश्चित्त सामर्थ्यवान् आचार्य ही कर सकते हैं। उपाध्याय के लिये नौ प्रायश्चित्त का विधान है और शेष सामान्य साधु के लिए आठ प्रायश्चित्तों का विधान है। चौदह पूर्वधारी और वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले दस प्रकार के प्रायश्चित्त करते हैं। इन दोनों का विच्छेद होने से वर्तमान काल में प्रथम आठ प्रकार के प्रायश्चित्त का ही विधान है। प्रायश्चित्त करने से प्रमादजनित दोषों का नाश, भावों की प्रसन्नता, जीवन की शुद्धि, शल्यरहित, मर्यादापालन, संयम में दृढ़ता एवं सिद्धि-मोक्ष की प्राप्ति होती है।२१७ २) विनय : साधना का मूल विनय है। जैन धर्म साधना प्रधान होने से आध्यात्मिक साधना का स्रोत आभ्यन्तर तप ही है। आत्मसंयम, अनुशासन और सद् व्यवहार विनय द्वारा ही विकसित होता है। आत्मसंयम - सदाचारी जीवन के द्वारा ही आत्मनियंत्रण किया जाय वरना दूसरे लोगों के द्वारा वध-बन्धनादि में आना पड़ेगा। इसलिए आभ्यन्तर तप में विनय को रखा गया है। तप में तन और मन को तपाया जाता है। उसके लिये भगवती आदि सूत्रों में विनय के प्रमुख सात भेद और प्रभेदों का उल्लेख किया है - ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वचन विनय, काय विनय, और लोकोपचार विनय।२१८ ३) वैयावृत्य (सेवा) : रोगी, वृद्ध, ग्लान आदि की निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले को परम पद की प्राप्ति होती है तथा तीर्थंकर गोत्र की प्राप्ति भी। महामुनि नंदिसेन ने अग्लान की सेवा करके परम पद पाया। ऋषभ देव भगवान् के दो पुत्रों ने सेवा के फलस्वरूप अपार रिद्धि सम्पदा प्राप्त की थी। भौतिक रिद्धि चक्रवर्ती की और आध्यात्मिक सम्पदा तीर्थंकर पद की वैयावृत्य तप द्वारा ही प्राप्त होती है। इसीलिए वैयावृत्य को आभ्यन्तर तप में रखा है। शास्त्र में सेवा के दस प्रकार बताये हैं - आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, कुल (शिष्य समुदाय), गण, संघ और साधर्मिक। इन सबकी सेवा करने से मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त होती है।२१९ ४) स्वाध्याय : स्वाध्याय से मन को शुद्ध किया जाता है और ध्यान से मन को स्थिर किया जाता है। 'स्व' का अध्ययन किये बिना ध्यान हो नहीं सकता। इसलिए जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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