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________________ उपसर्ग और कायक्लेश आदि शब्द प्रचलित हैं। कायक्लेश तप में दोनों प्रकार के कष्ट आते हैं। कायक्लेश तप के अनेक रूप हैं। आगम में कहीं सात या चौदह रूप में कायक्लेश तप का विवेचन किया है। इनमें साम्यता है, जैसे कि कार्योत्सर्ग करना, उत्कटुकासन, प्रतिमा धारण, वीरासन, निषद्या ( स्वाध्यायार्थ पालथी मांडकर बैठना ), दंडासन, लगडासन ये सात प्रकार हैं। कार्योत्सर्ग करना, एक स्थान पर खड़े रहे, उत्कटुकासन, प्रतिमा, वीरासन, सुखासन, सुप्तदंडासन, स्थिर दंडासन, सप्त लगडासन, आतापना, वस्त्रत्याग (दिगम्बरावस्था), खुजली न करे, थुंक भी न थूके और विभूषा भी न करे ये चौदह प्रकार हैं । काय को कष्ट देना ही कायक्लेश तप है । २१३ ६) प्रतिसंलीनता (पडिसंलीनता) : परभाव में लीन आत्मा को स्व स्वरूप का भान कराना ही प्रतिसंलीनता तप है। शास्त्र में इसके लिए "संयम" और "गुप्ति" शब्द का प्रयोग मिलता है। कछुवे का उदाहरण देकर समझाया गया है कि साधक पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, तीन योग और विविक्त शयनासनों का कछुवे की तरह गोपन करे। ये ही चार भेद प्रतिसंलीनता के हैं । २१४ अब आभ्यन्तर तप के छह प्रकारों का विवेचन करते हैं १) प्रायश्चित : साधनाकालीन जीवन में लगे हुए दोषों से मुक्ति पाने के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। आगमिक भाषा में दोष सेवन को प्रतिसेवना कहते हैं। दस प्रकार की प्रतिसेवना १) दर्प, २) प्रमाद, ३) अनाभोग, ४) आतुर, ५ ) आपत्ति (द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से), ६) शंकित, ७) सहसाकार, ८) भय, ९) प्रदेष और १०) विमर्श, से साधक अपनी साधना को दूषित करता है। आगम में कथित निषिद्ध क्रियाओं के करने से ही व्रत दूषित हो जाते हैं, जिससे साधक आत्मोन्नति नहीं कर सकता। आत्मोन्नति के लिए दोषों की शुद्धि आवश्यक है। दस प्रकार के दोषों को आचार्यों ने दर्पिका, प्रतिसेवना (प्रमाद प्रतिसेवना) और कल्पिका प्रतिसेवना (अप्रमाद प्रतिसेवना) के अंतर्गत ही समाविष्ट कर लिया है। प्रमाद के कारण ही अनाभोग (अत्यंत विस्मृति) और सहसाकार प्रतिसेवना का दोष लगता है। भाष्यकार ने दर्प का अर्थ प्रमाद किया है। दर्प से होनेवाली प्रतिसेवना दर्पिका प्रतिसेवना है। इससे मूलगुण और उत्तरगुण दोनों में दोष लगते हैं। दर्पिका प्रतिसेवना निष्कारण की जाने वाली प्रतिसेवना है। जब कि कल्पिका प्रतिसेवना किसी विशेष कारण के उपस्थित होने पर की जाती है। भाष्यकार की दृष्टि से आतुर प्रतिसेवना तीन प्रकार की है- क्षुधातुर, पिपासातुर, रोगातुर । इन सभी दोषों लगने के कारण मन, वचन और काय ही हैं। इनके कारण ही पुण्य और पापास्रव का बंध होता है। दोनों प्रकार के आस्रव व नाश संवर प्रक्रिया से ही हो सकता है। दोषों की शुद्धि चारित्र की निर्मलता पर आधारित है। चारित्र के बिना कर्मों का नाश नहीं और कर्मों जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १५३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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