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३) भिक्षाचरी : विविध प्रकार के अभिग्रह से आहार की गवेषणा करने को भिक्षाचरी कहते हैं। इसका दूसरा नाम "वृत्ति संक्षेप' भी है। श्रमण की भिक्षाचरी के लिए आगम में "गोचरी" "गोयरग्ग" "मधुकरीवृत्ति" एवं "संक्षेपवृत्ति" इन शब्दों का प्रयोग मिलता है। हरिभद्र ने तीन प्रकार की भिक्षा बताई है- १) दीनवृत्ति, २) पौरुषध्नी
और ३) सर्वसम्पत्करी । मधुकरीवृत्ति ही आदर्शवृत्ति मानी गई है। क्योंकि श्रमण परंपरा में श्रमण के लिए नवकोटिशुद्ध आहार (भिक्षु स्वयं भोजनार्थ हिंसा करे नहीं, कराये नहीं, करनेवाले को अनुमोदन न दे, न स्वयं अन्न पकाये, न पकवाये और न पकाने वाले का अनुमोदन करे, न स्वयं मोल ले, न दूसरों को लिवाए तथा न लेनेवाले का अनुमोदन करे)
और बयालीस दोषवर्जित भिक्षा ग्रहण करने का विधान है। एषणा, गवैषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा इन सबमें एषणा (दोषरहित आहार) की शुद्धि का विवेक रखकर आहार ग्रहण करना ही भिक्षाचरी तप है।
४) रसपरित्याग : आगम में पाँच रसों का वर्णन आता है- मधुर, आम्ल (खट्टा), तित्त्त (तीखा), काषाय (कसैला) और लवण (नमकीन)। इन रसों के कारण आहार विकारोत्तेजक बनता है। रस प्रीति को उत्पन्न करनेवाला है, जिससे रसों में विकृति आ जाती है। विकृति आते ही भक्ष्याभक्ष्यविगय का सेवन किया जाता है। भक्ष्य-विगयदूध, दही, घी, तेल, गुड़ और अवगाहिम (पकवान) तथा अभक्ष्यविगय-मद्य, मांस, मधु और नवनीत हैं। पूर्व दो त्याज्य ही हैं। किन्तु अंतिम दो विशेष स्थिति में ग्राह्य हैं। जिनके सेवन करने से विकार उत्पन्न होता है। विकार से कामासक्ति जागृत होती है, इन्द्रियाँ उत्तेजित होती हैं और साधक को पतन के रास्ते ले जाती हैं। इसलिए प्रणीत रस भोजन आत्मशोधक के लिए विषतुल्य है। इनका त्याग करना ही रसत्याग तप है। स्वादविजेता बनना ही रसत्याग है। स्वादविजेता के लिए आगम में नौ क्रम बताये हैं। १) निर्वितिक (विगय त्याग), २) प्रणीत आहार का त्याग (बलवर्धक भोजन का त्याग), ३) आयंबिल (सब विगय त्याग), ४) आयामसित्थभोई (धान्यादि धोने पर उन में से कुछ अंश लेना), ५) अरसाहार, ६) विरसाहार (स्वादरहित भोजन), ७) अंताहार, ८) पंताहार (सबके खानेपर शेष रहा हुआ लेना) और ९) रुक्षाहार (लूखा सूखा आहार लेना)। इन्द्रियों के दर्द का निग्रह करने के लिए , निद्रा पर विजय पाने के लिए, स्वाध्यायादि में सिद्धि पाने के लिए गरिष्ट घृतादि भोजन का त्याग करना ही रसपरित्याग तप है। २१२
५) कायक्लेश : बाह्य तप के प्रथम चार भेद आहार से संबंधित हैं और पांचवा भेद शरीर से। कायक्लेश शब्द का अर्थ है शरीर को कष्ट देना। कष्ट दो प्रकार के हैं - प्राकृतिक (देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि द्वारा प्राप्त) और २) आमंत्रित (तप, जप, ध्यानादि द्वारा सत्ता में स्थित कर्मों की उदीरणा करके भोगना)। आगम में कष्ट के लिए परीषह
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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