________________
से लेकर सभी प्रकार की तपावली इसके अन्तर्गत आ जाती है। इत्वरिक तप की उत्कृष्ट कायमर्यादा छह मास तक की मानी गई है। प्रथम, मध्यम व चरम तीर्थंकर के शासनकाल में तप की उत्कृष्ट कालमर्यादा क्रमशः बारह मास, आठ मास और छह मास की रही है। इस अन्तर का मुख्य कारण उन-उन समय की स्थिति और शरीर की अनुकूलता है। शरीर बल, मनोबल (मन की दृढता), श्रद्धा, आरोग्य, क्षेत्र, कालादि का विचार करके इत्वरिक तप करें, ताकि मन में समाधि भाव रह सके। समाधिभाव ही तप है। यावत्कथित तप के यों तो तीन भेद हैं- इंगितमरण, भक्त प्रत्याख्यान और पादोपगमन, किन्तु कहीं कहीं इंगितमरण को भक्त प्रत्याख्यान तप के अंतर्गत ही मान लिया है। इसलिए यावत्कथित तप के दो भेद मानते हैं। भक्त प्रत्याख्यान और पादोपगमन। इन्हें निर्दारिम, अनिर्हारिम, वाघाइम, निर्वाधाइम तथा सविचार अविचार ऐसे दो-दो भेदों में विभाजित किया गया है। यावत्कथित तप को संलेखना-संथारा अथवा समाधि मरण कहते हैं। २०९ इसका वर्णन आगे करेंगे।
२) ऊणोदरी : आगम में इसके भिन्न-भिन्न नाम मिलते हैं, जैसे कि 'ऊनोदरी' 'अवमौदर्य' और 'अवमोदरिका'। इन सबका एक ही अर्थ है (ऊन + कम, उदरी-पेट, अवम-कम, ओदरिका या ओदर्य-पेट) भूख से कम खाना, परिमित आहार करना। इसे द्रव्य ऊनोदरी और भाव ऊणोदरी कहते हैं। कहीं-कहीं तो ऊणोदरी के पाँच भेद भी मिलते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्याय। द्रव्य ऊणोदरी दो प्रकार की है - उपकरण ऊनोदरी और भक्तपान ऊनोदरी। उपकरण ऊनोदरी में शीत, ताप, भूख, प्यास, दो वस्त्र, पात्र, कम्बलादि एवं अन्न जल मर्यादित हों। भक्त ऊनोदरी में भोजन की मात्रा का वर्णन है। साधारण स्वस्थ मनुष्य का आहार बत्तीस कवल होता है। कवल शब्द के दो अर्थ हैं१) मुर्गी के अंडे के बराबर आहार का एक ग्रास (एक कवल) और २) जिसका जितना
आहार हो उसके बत्तीस भाग करें, उसका बत्तीसवाँ भाग एक कवल हैं। सुखपूर्वक मुंह में जितना ग्रास आ सके उतना एक कवल है। स्वस्थ मनुष्य का बत्तीस कवल का आहार, स्त्री का अठाइस कवल का आहार तथा नपुंसक का चौबीस कवल का आहार सम्पूर्ण माना गया है। किन्तु इनमें चौथाई (आठ कवल) भाग आहार करनेवाला अल्पाहारी, नौ से बारह कवल भोजन करनेवाला अपार्द्ध, तेरह से सोलह कवल तक का आहार लेनेवाला दो भाग ऊनोदर, चौबीस कवल का भोगी पादोन ऊनोदर तथा इक्कीस कवल का ग्रहण करनेवाला किंचित ऊनोदर तप करनेवाला है। क्षेत्र ऊनोदरी में ग्राम, नगर आदि से भिक्षा चरण का विधान है। काल ऊनोदरी में चारों प्रहर में भिन्न-भिन्न अभिग्रह करके भिक्षार्थ का विधान है। भाव ऊनोदरी में दाता के भाव एवं क्रोधादि भाव का विधान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अभिग्रहों के साथ भिक्षा ग्रहण करने को पर्यवचर (पर्याय) ऊनोदरी कहते हैं।२१०
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
Jain Education International
For.Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org