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________________ धन्ना अणगार को उग्र तपस्वियों में महादुष्करकारक तथा महानिर्जराकारक उत्कृष्ट तपस्वी बताया।२०४ उस काल में आत्मलक्ष्यी साधक को उग्रतपस्वी, घोर तपस्वी और महातपस्वी कहते थे और आज भी कहते हैं।२०५ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान ने छद्मस्थावस्था में १००० वर्ष तक तप किया बीचके २२ तिर्थंकरोंने भी छद्मस्थावस्था में तप किया और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के जीव ने नन्दराजा के भव में एक लाख वर्ष तक तप किया, तथा महावीर के भव में दीक्षा लेने के बाद साढ़े बारह वर्ष की साधना काल में बारह वर्ष, तेरह पक्ष तक तप की उत्कृष्ट साधना करते रहे। इस दीर्घ अवधिकाल में उन्होंने सिर्फ तीन सौ उनपचास दिन तक ही अन्न ग्रहण किया।२०६ महावीर के शिष्य संपदाओं ने भी विभिन्न प्रकार के उग्र तप किये२०७, जैसे कि गुणरत्न संवत्सर तप, रयनावली तप, कनकावली तप, महासिंह निष्क्रीडित, लघुसिंह (खुड्डाग-सिंह) तप, बारह भिक्खु पडिमा को एक से लेकर बारह तक आगम कथनानुसार तप किया, सत्तसत्त भिक्खुपडिमा, अट्ठ-अट्ठ भिक्खुपडिमा, नवनवभिक्खुपडिमा, दस दस भिक्खुपडिमा, भद्दत्तरापडिमा, खुड्डया सव्वतोभद्दपडिमा, महालिया, सव्वतो भद्द पडिमा, मुक्तावली तप, एकावली तप, यवमध्य चन्द्रपडिमा, वज्र मध्य चन्द्र पडिमा, एकलविहार पडिमा, वस्त्र पडिमा, पात्र पडिमा, क्षुद्रिका प्रस्रवण पडिमा, महतीप्रस्रवण (मोय) पडिमा, अहोरात्रि पडिमा, एक रात्रि पडिमा एवं आयंबिल वर्धमान तप। तप आध्यात्मिक साधना में आलंबन रूप है। जब मनोयोग के परमाणु, वचनयोग के परमाणु, काययोग के परमाणु तथा तैजस और कार्मण के अति सूक्ष्म परमाणु उत्तप्त होते हैं, तब तप के द्वारा उन्हें (अशुभ परमाणुओं) निर्मल बनाया जाता है। निर्मल परमाणुओं के स्कन्धों से ही साधना में स्थिरता आती है। विषय कषाय, रागद्वेषादि का शमन होता है। संवर निर्जरा की सिद्धि होती है। संवर निर्जरा का फल ही मोक्ष है। अतः तप आत्मशोधन का मुख्य साधन है। तप के भेद प्रभेद आगम एवं अन्य ग्रंथों में तप के दो प्रकार बताये हैं - बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप के छह प्रकार हैं- १) अणशण, २) ऊणोदरी (ओमोयरिया), ३) भिक्षाचरी, ४) रस परित्याग, ५) कायक्लेश और, ६) पडिसंलीनता। वैसे ही आभ्यन्तर तप के भी छह प्रकार हैं - १) प्रायश्चित्त, २) विनय, ३) वैयावृत्य, ४) स्वाध्याय, ५) ध्यान और, ६) व्युत्सर्ग।२०८ बारह प्रकार के तप का स्वरूप १) अनशन : इसके दो भेद हैं - इत्वरिक (निश्चित समय तक ही आहारादि का ग्रहण करना) और यावत्काथित (जीवनपर्यंत) इत्वरिक तप के अनेक भेद हैं - नवकारसी १५० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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