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एतदर्थ उचित यत्न करना तथा त्रस स्थावर जन्तु से रहित अचित्त पृथ्वीतल धूल या रेत में यत्नपूर्वक उत्सर्ग (त्यागने को) करने को उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिठावणिया समिति कहते हैं। २००
पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति यह श्रमणों की साधना पद्धति है। प्राचीन काल से आज तक यह पद्धति चल रही है। किन्तु देश काल के अनुसार इन साधना पद्धति में वर्तमान काल में कुछ अंतर दिखाई देता है।
चारित्र के विभिन्न आयाम अथवा पोषक अंग सामान्यतः आध्यात्मिक साधना के चार अंग माने जाते हैं, परंतु चतुर्थ अंग 'तप' को चारित्र के अंतर्गत ही मान लिया गया है। इसलिए मुख्यतः त्रिविध साधना पद्धतियाँ ही हैं। अन्य पद्धतियाँ तो चारित्र के पोषक अंग हैं। चारित्र के पोषक अंग निम्न प्रकार के हैं - तप, उत्सर्ग-अपवाद मार्ग, समाचारी एवं षडावश्यक।
तप : भारतीय त्रिविध साधना पद्धति में तप को साधना का प्राण माना है। सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिए जीवन में तप आवश्यक है। क्योंकि आत्मदशा से परमात्मदशा तक पहुँचानेवाला सशक्त माध्यम तप ही है। इसलिए श्रमण संस्कृति में तप का विशेष विधान है। तप को ही ध्यान कहा है। तप से आत्मा की शुद्धि होती है। पर याद रखना है कि अविवेकमय तप की प्रधानता नहीं है। विवेकहीन तप से आत्मशोधन नहीं होता। भगवान महावीर ने इसे बाल तप की संज्ञा दी है। तामली तापस ६० हजार वर्ष तक तप करता रहा, पर उसका तप ज्ञानयुक्त नहीं था। आत्मदर्शन तथा आत्मशोधन की दृष्टि से वह तप नहीं कर रहा था। इसलिए उसे "बाल तपस्वी" कहते हैं।२०१ बाल तप से शरीर को तपाया जाता है, कर्मों को नहीं। वास्तव में कर्मक्षयार्थ तप ही सच्चा तप है। जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वही तप है। अथवा जिसके द्वारा शरीर के रस, रुधिर, मांस, मेद, हड्डियों, मज्जा एवं शुक्र आदि तपे जाते हैं, अशुभ कर्म जल जाते हैं वह तप है। आगम में ज्ञानपूर्वक तप को ही प्रधानता दी है- अज्ञान तप को नहीं। २०२ सम्यग्ज्ञान के अभाव में किया गया तप आत्मशोधन का साधन नहीं बनता। औपपातिक सूत्र में नाना प्रकार के वानप्रस्थ तापसों का वर्णन है कि उन्होंने विविध प्रकार के तप किये, कडकडाती धूप में आतापना ली, वृक्ष-शाखा से औंधे लटके, छाती तक भूमि में गढ़े रहे, काइ एवं अन्न कण खाकर रहे, नासाग्र तक जल में खड़े रहे, वायु भक्षण से जीते रहे आदि आदि।
तप का मुख्य ध्येय जीवन शोधन है। वह तप अहिंसा संयममय होना चाहिये। बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी, अन्तरात्मावस्था से परमात्मावस्था तक, तथा जन से शिव बनने के लिए ही साधक घोर तपस्या करता है। भगवान महावीर के चौदह हजार श्रमण वर्गों में
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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