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________________ (उद्भिन्न), मालोहड, अच्छिन्न (आच्छेद्य), आणिसिट्ठ (अनिःसृत) और अज्झोयरय (अध्यवपूरक) ये उद्गम के १६ दोष श्रावक की और से लगते हैं। २) १६ उत्पादन के दोष :- धात्री (धात्रीपिण्ड), दूती (दूतिपिण्ड), निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, पूर्व-पश्चात् संस्तव, विद्या, मंत्र, चूर्ण, योग, मूलकर्म। ये उत्पादन के सोलह दोष साधु की ओर से लगते हैं। ३) एषणा के १० दोष :- शक्ति, अक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संवृत, दायक, उन्मिश्रित, अपरिणत, लिप्त छर्दित। इस प्रकार १६ +१६+१० = ४२ दोष भिक्षा के हैं। इन दोषों से अदूषित, अशन, पान (पानी), रजोहरण, मुखवस्त्रिका, चोलपट्ट आदि स्थविरकल्पियों के चौदह प्रकार की औधिक उपधि (उपकरण) तथा जिनकल्पियों के बारह प्रकार की उपधि तथा साध्वियों की पच्चीस प्रकार की उपधि और औपग्रहिक संथारा (आसन) पाट, पाटला, बाजोट, चर्मदण्ड, दण्डासन आदि दोषों से अदूषित हों, उन्हें ग्रहण करना एषणा समिति गवैषणा और ग्रासैषणा की दृष्टि से एषणा के दो प्रकार हैं। ग्रासैषणा (मंडली में बैठकर ग्रास लेते समय लगने) के पांच दोष हैं-१९६ संयोजना, अप्रमाण, अंगार, धूम्र, कारणाभाव। इन पाँच दोषों को टालकर आहार करना चाहिये। श्रमण छह कारण से आहार ग्रहण करें। वे कारण इस प्रकार हैं। १) क्षुधानिवृत्ति, २) वैयावृत्य, ३) ईर्यार्थ, ४) संयमार्थ, ५) प्राण धारणार्थ (संयम जीवन रक्षा हेतु) और ६) धर्म चिन्तनार्थ। इस प्रकार "उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, अप्रमाण, अंगार, धूम और कारणाभाव आदि दोषों को टालकर पिण्ड (आहार) का शोधन, अन्वेषण, विश्लेषण करके आहारादि में प्रवृत्ति करने हेतु मुनियों के लिए एषणा समिति कही है। १९८ आदान-भाण्डपात्र निक्षेपणा समिति आदान = वस्र, पात्र, पुस्तक आदि भाण्डमात्र उपकरणों को ग्रहण करना एवं जीवरहित भूमि का प्रमार्जन करके भाण्ड मात्रादि को रखना ही आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति है। सम्यक् प्रकार से पहले देखी हुई जगह पर रजोहरण से प्रमार्जित करके यतना से वस्तु लें और रखें उसे आदानभाण्डमात्र -निक्षेपणा समिति कहते हैं। उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिठावणिया समिति (उत्सर्ग समिति) ऊसर भूमि में मल, मूत्र, कफ, नाक का मैल, बाल, वमन एवं भग्नपात्रादि त्याज्य वस्तु को जीवरहित एकांत (स्थण्डिल भूमि में) में फेंकना, जीवादि की उत्पत्ति न हो १४८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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