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सत्प्रवृत्ति करना एवं मनुष्य, देव, तीर्यचों द्वारा दिए गए उपसर्ग परीषहों में स्थिर रहना कायगुप्ति है।
तीनों गुप्ति के अतिचार मनोगुप्ति के अतिचार ८७ : - आत्मा की राग-द्वेष-मोहरूप परिणति शब्दविपरीतता, अर्थ विपरीतता, ज्ञान विपरीतता तथा दृष्प्रणिधान-आर्त रौद्र ध्यान में मन न लगाना।
वचनगुप्ति के अतिचार'८८ : - कर्कशकारी, छेदकारी, भेदकारी, मर्मकारी, क्रोध-मान-माया-लोभकारी आदि संतापजनक भाषा बोलना, विकथाओं में आदर भाव, हुंकारादि क्रिया, खेकारना, हाथ-पैर भौयें आदि से इशारा करना आदि।
कायगुप्ति के अतिचार' ८९ : - कायोत्सर्ग संबंधी बत्तीस दोष, जीवजन्तु, काष्ठ, पाषाण आदि से निर्मित स्त्री प्रतिमाएं, पर धन की प्रचुर मात्रा, हिंसक देश में अयत्नाचारपूर्वक निवास, अपध्यान सहित शरीर के व्यापार की निवृत्ति अचेष्टारूप कायगुप्ति के अतिचार हैं।
पाँच समितियों का स्वरूप ईर्यासमिति :- युग-परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए; जीवों की रक्षा हेतु यत्नपूर्वक सूर्यालोक में गमनागमन करने की सत्प्रवृत्ति को ईर्यासमिति कहते हैं। १९० ईर्या का अर्थ गमन है। मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि और आलम्बन इन चार शुद्धियों के साथ गमन करनेवाले मुनि की सम्यक् क्रिया को ईर्या समिति कहते हैं। १९१ यत्नपूर्वक चलनेवाले मुनि के जीव विराधना होनेपर भी पाप बंध नहीं होता। क्योंकि उनके मन में जीवों के प्रति करुणा भाव है। इससे विपरीत अयतना या अवधपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले साधक को जीवों की विराधना (मृत्यु) न होनेपर भी हिंसा का पाप लगता ही
भाषा समिति :- आवश्यकता होनेपर भाषा के सोलह दोषों को त्याग कर यत्नपूर्वक भाषण में प्रवृत्ति करना तथा हित, मित, सत्य, तथ्यकारी वचन बोलना ही भाषा समिति कहलाती है। १९३
एषणा समिति :- गवैषणा (गोचरी) के बयालीस दोषों से रहित शुद्ध अन्नजल, वस्र, पात्र आदि उपधि का सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना एषणा समिति है। १९४ भिक्षा में लगनेवाले बयालीस दोषों को तीन भागोंमें विभाजित किया गया है। १९५ १. उद्गम के १६ दोष - आधाकर्म, उद्देशिक, पूइकम्म, मीसजात,ठवणा, पाहुडिया, पाओयर (प्रादुष्करण), कीय, पामिच्च (प्रामित्थ), परियट्टिअ (परिवर्तित), अब्भिहड, उब्भिन्न
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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