SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "इति" गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। आगम में कहे अनुसार गमन करने की सम्यक् प्रवृत्ति समिति कहलाती है। १७८ = गुप्ति शब्द " गोप्" धातु से बना है जिसका अर्थ रक्षण है। आत्मा का संरक्षण या रक्षा जिन कारणों से होती है। उसे गुप्ति कहते हैं। सम्य्क प्रकार से मन-वचन-काय का निग्रह करना ही गुप्ति है। १७९ दोनों में अन्तर गुप्ति की आराधना करनेवाले को समिति का पालन करना ही चाहिये। क्योंकि समिति गुप्ति की सखी है। अतः समिति गुप्ति के स्वभाव का अनुसरण करती है। अतः समितियों में गुप्तियाँ पायी जाती हैं। किन्तु गुप्तियों में समितियाँ नहीं पायी जाती । गुप्तियाँ निवृत्तिप्रधान होती हैं और समितियाँ प्रवृत्तिप्रधान। इसलिए समितियों को गुप्तियों की सखी कहा है तथा गुप्तियों को मोक्षमार्ग की देवी बताया है। १८० के द्वार को बन्द करने में लीन साधु के तीन गुप्तियाँ कही गई हैं और शारीरिक चेष्टा करनेवाले मुनि के पाँच समितियाँ बताई गई हैं। तीर्थंकरोंने इसे ही सम्यग् चारित्र कहा है । १८१ तीन गुप्ति का स्वरूप लोकैषणा से रहित साधु के लिए सम्यग्दर्शनादि आत्मा को मिथ्यादर्शनमिथ्याज्ञान- मिथ्याचारित्र से रक्षा हेतु पापयोगों का निग्रह करना चाहिये । १८२ आगम में तीन प्रकार की गुप्ति हैं९८३ - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति । मनोगुप्ति आर्त- रौद्र ध्यान विषयक मन से संरंभ, समारंभ, आरंभ, संबंधी संकल्प-विकल्प से रहित, इहलोक परलोक हितकारी धर्म और शुक्लध्यान का चिंतन, मध्यस्थ भावना एवं समभाव में स्थिरता तथा आत्मस्वरूप रमणता में रक्षा करनेवाले को ज्ञानियों ने मनोगुप्ति कहा है। मन से रागादि का न होना ही मनोगुप्ति है । १८४ वचन गुप्ति वचन के संरंभ-समारंभ-आरंभ-संबंधी व्यापार को रोकना, विकथा न करना, झूठ न बोलना, निन्दा चुगली आदि का न करना, मौन रखना वचनगुप्ति है। कायगुप्ति शारीरिक क्रिया संबंधी संरंभ-समारंभ - आरंभ में प्रवृत्ति न करना, चलने, फिरने, उठने बैठने आदि क्रिया में संयम रखना, अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग करके यतनापूर्वक , जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy