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द्वितीय महाव्रत की पांच भावना : वाणी विवेक, क्रोध त्याग, लोभ त्याग, भय और हास्य त्याग।
तृतीय महाव्रत की पांच भावना : अवग्रह (स्थान) की मर्यादित याचना करना, गुरु आज्ञा से जल ग्रहण करना, क्षेत्र कालादि के अनुसार अवग्रह की याचना करना, बारबार मर्यादित पदार्थों की याचना करना, साधर्मिक से परिमित वस्तुओं को लेना अथवा अवग्रह की याचना करना।
चौथे महाव्रत की पांच भावना : स्त्री कथा का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगोपांग का त्याग, पूर्व काम भोगों के चिन्तन का त्याग, स्निग्ध भोजनादि का त्याग, विविक्त शयनासन (स्त्री, नपुंसक, पशु के स्थानादि) का त्याग। कहीं-कहीं इन भावना क्रम में एवं नामकरण में भी भिन्नता दिखाई देती है।
पांचवें महाव्रत की पांच भावना : श्रोतेन्द्रिय - चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय - रसेन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रिय संयम। इन पांचों इन्द्रियों का संयम ही पांच भावना है।
रात्रि भोजन विरमण व्रत रात्रि भोजन करने से छ जीवनिकाय जीवों का वध होता है। रात्रि में भोजन बनाने से छ जीवनिकाय जीव का वध होता है। भोजन में अगर चींटी खाई जाय तो वह बुद्धि का नाश करती है। जू खाने में आ जाय तो जलोदर रोग हो जाता है। मक्खी भोजन में गिर जाय तो वमन हो जाता है। कनखजुरा खाने से कुष्ट रोग हो जाता है। कांटा या तिनका गले मे फंस जाय तो पीड़ा उत्पन्न होती है। साग में बिच्छु गिर जाय तो वह तालु को फाड़ देता है, गले में बाल चिपक जाय तो आवाज खराब हो जाती है। रात्रि भोजन करने में तो ये प्रत्यक्ष दोष हैं। रात्रि में सूक्ष्म जीवों की फोज सी निकलती हैं। वे भौतिक साधनों के प्रकाश में नजर नहीं आते। सूर्य तेज में सूक्ष्म जीव भोजन में नहीं पडते। परम ज्ञानियों की दृष्टि से अहिंसा व्रत के भंग होने की संभावना होने के कारण उसे स्वीकार नहीं किया है। रात्रि में आंखों से दिखाई न देनेवाले सूक्ष्म जन्तु भोजन में अधिक होते हैं इसलिये चारों प्रकार से रात्रि भोजन का त्याग करना रात्रि भोजन विरमण व्रत है। १७६
उत्तरगुण चारित्र-पाँच समिति तीन गुप्ति पांच समिति और तीन गुप्ति रत्नत्रय की संरक्षक और पोषक हैं। इन्हें "अष्ट प्रवचन माता" भी कहते हैं। १७७ अष्ट प्रवचन माता साधक जीवन में आने वाले परीषह उपसर्गों में धैर्य बंधाकर रक्षा करती हैं।
समिति-गुप्ति का अर्थ समिति शब्द "सम्" और "इति" के मेल से बनता है। "सम्" = सम्यक, जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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