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४) सर्व मैथुन विरमण व्रत-ब्रह्मचर्य महाव्रत
देव, मनुष्य, तिर्यंच संबंधी कामभोगों से निवृत्त होना, कामोत्तेजक साधनों से निवृत्त, वासनोत्तेजक दृश्यों से मुक्त साधक त्रिकरण और त्रियोग से मैथुन सेवन का त्याग करता है और वही ब्रह्मचर्य महाव्रत है । १६८ ब्रह्मचारी साधक के चरणों में देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि दैवी शक्तियाँ भी नतमस्तक हो जाती हैं। १६९ काम भोग तो किंपाक फल की तरह विनाशक है। १७० इसलिए ब्रह्मचारी साधक औदारिक संबंधी काम भोगों का त्रिविध - त्रिविध ( मन, वचन, काया एवं कृत, कारित, अनुमोदन) ३×३=९ प्रकार से त्याग करता है ऐसे ही देवता संबंधी ३३ = ९ कुल १८ प्रकार का त्याग करते हैं । १७१
५) परिग्रिहविरमण व्रत- अपरिग्रह महाव्रत
समस्त पापों का मूल परिग्रह है। परिग्रह के कारण ही हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापाचरण किये जाते हैं। आशा, तृष्णा, ममत्व, आसक्ति और परिग्रह ये सब एक ही पर्यायवाची शब्द हैं। यह बाह्य और आभ्यंतर भेद से दो प्रकार का है। १७२ बाह्य परिग्रह दस प्रकार का है - वास्तु (घर), क्षेत्र, धन, धान्य, द्विपद (मानव), चतुष्पद (पशु आदि), शयनासन, यान, कुप्य और भांड। इसके अतिरिक्त स्वजन, परिजन, परिवार, नौकरादि, आभूषणादि भी बाह्य परिग्रह ही हैं, और आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है- मिथ्यात्व, वेदराग, हास्यादि (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) षष्ठक, कषायचतुष्क ( क्रोध, मान, माया, लोभ) । द्रव्य और भाव से वस्तुओं का ममत्वमुलक संग्रह करना परिग्रह है। इन परिग्रह का त्रिकरण त्रियोग से सर्वथा त्याग करना ही अपरिग्रह महाव्रत है। समस्त मूर्च्छाभाव का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से त्याग करना ही परिग्रह विरमण व्रत है । १७३
पाँच महाव्रत की २५ भावना
भावना भवनाशिनी एवं व्रतों की रक्षक है। भावना भी दो प्रकार की होती है। १७४ - प्रशस्त (शुभ) और अप्रशस्त (अशुभ) । अप्रशस्त भावना के प्राणातिपात आदि १८ प्रकार हैं और प्रशस्त भावना के ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य नामक चार प्रकार हैं। महाव्रतों की पच्चीस भावना इस प्रकार हैं.
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प्रथम महाव्रत की पाँच भावना :- ईर्यासमिति, मन समिति, वय (वचन) समिति, आयाण (आदान) भंडपत्तनिक्षेपणा समिति, आलोइ-इय पाण भोयण समिति । कहीं- कहीं नामों में भिन्नता मिलती है - यथा मनोगुप्ति, एषणा समिति, आदान भांडनिक्षपण समिति, ईर्यासमिति, प्रेक्षित।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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