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________________ भयादि दूषित मनोवृत्तियों के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा पहुँचाना अथवा अनुमति देना हिंसा है। हिंसा के दो प्रकार हैं- - १५९ द्रव्यहिंसा और भावहिंसा। इन दोनों से बचना ही अहिंसा है। प्रमादवश त्रस या स्थावर जीवों के प्राणों का हनन त्रिकरण (न स्वयं करना, न दूसरों से करवाना और न ही हिंसा करने वाले को अनुमोदना देना), त्रियोग ( मन, वचन, काय ) से न करना ही प्रथम अहिंसा महाव्रत है । १६० अहिंसा को प्रश्न व्याकरण सूत्र में साठ नामों से घोषित किया है। इसे भगवती अहिंसा कहते हैं। यह शरणागतरक्षक, प्रतिष्ठा, निर्वाण, निवृत्ति, समाधि, शांति, कान्ति, दया, क्षमा, करुणा, सम्यक्त्वाराधिका, रिद्धिसिद्धि समुद्धिप्रदायिका, केवलीस्थान, शिवसुखप्रदाता आदि साठ नामों से युक्त है । १६१ इसलिए श्रमण ही सूक्ष्म, स्थूल, त्रस, स्थावर आदि छकायिक जीवों की रक्षा करता हुआ अष्टादश दोषों से रहित होकर प्रथम अहिंसा महाव्रत की साधना करता है। क्योंकि वही तप, जप, श्रुत, यम, ज्ञान, स्वाध्याय, ध्यान एवं दानादि तथा अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह की जननी है । १६२ २) सर्व मृषावाद विरमण, व्रत मृषावाद से सर्वथा निवृत्ति पाना ही सत्य है । सत्य ही अहिंसा का विराट् रूपान्तर है। सत्य ही साधना का प्राण है। सत्य का त्रिकरण और त्रियोग से पालन करना ही सत्य महाव्रत है। १६३ सत्य को ही भगवान् कहा है। वही लोक में सार भूत है। महासमुद्र के समान गंभीर, मेरू के समान स्थिर, चन्द्र के समान सौम्य और सूर्य के समान तेजस्वीसत्य महाव्रत है । १६४ इसलिए श्रमण द्वितीय महाव्रत की आराधना करते हुए हित, मित, पथ्य, तथ्य एवं सत्य भाषा का ही प्रयोग करता है । १६५ कभी सावद्य वचन नहीं बोलता । मिथ्यावचन स्व पर अहितकर्ता है। अतः सत्यव्रत की सर्वथा आराधना करना ही 'मृषावाद विरमण' नामक दूसरा महाव्रत है। ३) अदत्तादान विरमण व्रत चोरी नरक का प्रवेशद्वार है। उससे बचने के लिए श्रमण त्रिकरण और त्रियोग से वस्त्र, पात्र, मकान एवं अन्य वस्तुओं को मालिक की आज्ञा बिना स्वीकार नहीं करता, अपितु अचौर्य व्रत का सर्वथा पालन करता है, यही अदत्तादान महाव्रत है । १६६ चोरी के चार प्रकार बताये हैं - १६७ द्रव्य क्षेत्र- काल और भाव चोरी। साधक सूक्ष्म, स्थूल, द्रव्य और भाव रूप से त्रिकरण त्रियोग से 'अदत्तादान विरमण व्रत' की प्रतिज्ञा करते हुए विचरण करता है। - जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १४३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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