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प्रत्येक व्रत के पांच पांच अतिचार कहे गये हैं। अतिचार का अर्थ है व्रत में आने वाले विकार। अतः उन सबका त्याग करना अत्यावश्यक है। बारह व्रत के ६० अतिचार हैं-१५१ इन सभी का उल्लेख करना समीचीन नहीं हैं।
बारह व्रत के समस्त अतिचारों का श्रावक त्याग करता है। श्रावक की ग्यारह पडिमा, षडावश्यक एवं संलेखना का वर्णन आगे करेंगे।
७) सर्व विरति चारित्र-श्रमण धर्म श्रमण, समन और शमन इन तीन शद्रों का प्रयोग मुनि के लिए होता है।
श्रमण शद 'श्रम' धातु से बना है जिसका अर्थ है श्रम करना। समण शब्द का अर्थ है समभाव रखना तथा शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शांत करना। १५२ इन तीनों शद्रों का सार एक ही है कि समभाव की साधना करना। श्रमण शिरोमणी महावीर का कथन है कि 'ममता-रहित, निरहंकार, निःसंग, प्राणीमात्र पर समभाव रखने वाला, लाभ-हानि, सुख-दुःख, जन्म मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि में समभाव रखने वाला ही साधु है।' उन्हें भगवान ने धर्म देव कहा है।९५३ अथवा 'जो साधक शरीरादि में आसक्ति नहीं रखता, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता तथा मैथुन और परिग्रह के विकार से रहित, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, भय, मत्सर आदि कर्मादान एवं आत्मा के पतन हेतुओं से निवृत्त, इन्द्रियविजेता, मोक्षमार्ग का योग्य साधक ही श्रमण कहलाता है। १५४
पाँच महाव्रत श्रमण की साधना आंशिक नहीं पूर्ण होती है। श्रावक अंशतः हिंसादि का त्याग करता है और श्रमण पूर्णतः हिंसादि का त्याग करता है। इसलिए श्रमण के अहिंसादि व्रत महाव्रत कहलाते हैं। जिन व्रतों की आराधना महान् है, जिसके अपनाने से आत्मा महान् बनती है उसे महाव्रत कहते हैं।१५५ इस आराधना से साधक अनुत्तरविमानवासी देव, अरिहन्त और सिद्ध बन सकता है। इसीलिए इसे 'चारित्र धर्म' अथवा 'यतना' के नाम से संबोधित करते हैं।१५६ इसके दो भेद हैं - १५७ मूलगुण और उत्तरगुण। मूलगुण में पांच महाव्रत और उत्तरगुण में पांच समिति और तीन गुप्ति का विभाजन किया गया है। महाव्रत पांच हैं - १५८ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। मूलगुण : १) सर्व प्राणातिपात विरमण व्रत
श्रमण अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप अहिंसा का त्रिकरण त्रियोग से पालक है। हिंसा और अहिंसा की आधार भूमि भावना है। भावना पर ही जैन धर्म आधारित है। अतः मन, वाणी और शरीर से काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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