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एक करण तीन योग अथवा दो करण और तीन योग से किया जाता है। जिस व्रत में अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति के अनुसार भोग्य (एक बार उपभोग करना) और उपभोग्य (परिभोग = बार -बार वस्तु का उपयोग करना) वस्तुओं की २६ संख्याओं के रूप में तथा १५ कर्मादान के रूप में सीमा निर्धारित करने को भोगोपभोग परिमाण व्रत नामक दूसरा गुणव्रत कहलाता है। यह व्रत दो प्रकार का है - १४५ भोग और कर्म। भोग में छब्बीस वस्तुओं की मर्यादा की जाती है और कर्म में १५ प्रकार के वस्तुओं की मर्यादा की जाती है। इस व्रत की आराधना दो करण और तीन योग से की जाती है। तीसरे गुणव्रत में आर्त, रौद्र ध्यान-अपध्यान करना, पापजनक कार्य का उपदेश या प्रेरणा देना, हिंसक साधन दूसरों को देना, प्रमाद करना इन चार की बिना प्रयोजन मन वचन काय से समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होने को अनर्थदण्ड कहते हैं। शरीर आदि के लिए जो कुछ भी
आरंभजनक या सावद्य-प्रवृत्ति की जाती है, वह तो अर्थदण्ड है किन्तु अपने या पराये किसी का भी स्वार्थवश या अकारण ही आत्मा को दण्डित करना अनर्थदण्ड है। अनर्थदण्ड का त्याग करना ही तीसरा गुणव्रत है।१४६ श्रावक चारों प्रकार के अनर्थदण्ड में आठ आगार (आत्म रक्षा हेतु, राजाज्ञा, जाति, परिवार के लिए, नाग, भूत, यक्ष, देव आदि) रखकर दो करण और तीन योग से जीवनभर के लिए अनर्थदण्डित वस्तुओं का त्याग करता है।
___ चार शिक्षा व्रत शिक्षाव्रत में आन्तरिक अनुशासन की विधि स्पष्ट की जाती है। शिक्षाव्रत चार हैं - सामायिकव्रत, देशावकाशिकव्रत, पौषधोपवास और अतिथि- संविभाग व्रत। आर्त-रौद्र ध्यान एवं सर्व पाप-व्यापारों का (सावद्य-व्यापार) त्याग करके एक मुहूर्त तक समभाव की साधना को महापुरुषों ने सामायिक व्रत कहा है। १४७ इसमें सिर्फ निरवद्य व्यापार की क्रिया होती है। प्रथम दिग्वत नामक गुणव्रत में दशों दिशाओं के गमन की मर्यादा निश्चित
की गई, उनमें भी पूरे दिन या प्रहर आदि के लिए विशेष रूप से क्षेत्र मर्यादा की कुछ सीमा निर्धारित करना ही देशावकाशिक व्रत कहलाता है।१४८ देश का अर्थ स्थान है और अवकाश का अर्थ काल या समय है। श्रावक निश्चित काल के लिए देश या क्षेत्र की मर्यादा करता है। प्रतिदिन के चौदह नियमों का विधान भी इसी व्रत के अंतर्गत आता है। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या इन चतुर्पर्व दिनों में सावध व्यापारों का त्याग करके आत्मा को पोषण देनेवाली प्रवृत्ति को अंगीकार करके स्वाध्याय ध्यानादि में रमण . करना ही पौषधोपवास व्रत हैं। इसमें चारों आहार (असण, पाण, खाइम, साइम) का त्याग किया जाता है।१४९ अतिथी-संविभाग शिक्षाव्रत में वस्त्र, पात्र, मकान आदि कल्पनीय वस्तुएँ साधु-साध्वियों को दान में दी जाती हैं।१५० सुपात्रदान और अनुकम्पादान का जैनागम में विशेष महत्त्व है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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