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________________ पाँच अणुव्रत द्विविध (करूं नहीं, कराऊँ नही-करण), त्रिविध (मन, वचन, काय-योग) रूप में पाला जाता है। १३५ क्योंकि श्रावक को अनुमोदना का दोष लगता ही है। इसलिए वह दो करण और तीन योग से हिंसादि सबकी सावद्य क्रिया करता है। उन सावद्य क्रिया से बचने के लिए सर्वप्रथम जीवन में मूलगुण को स्वीकार करता है। मूलगुण (अणुव्रत ) पाँच हैं - १३६ १) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत, २) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत, ३) स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत, ४) स्वदार संतोष-परदार विवर्जन व्रत और ५ ) स्थूल परिग्रह- परिणाम व्रत (इच्छा परिमाण व्रत ) । श्रावक स्थूल हिंसा का त्याग तो करता है, किन्तु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय इन पाँच स्थावरों के सूक्ष्म जीवों की रक्षा नहीं कर सकता। इसलिए श्रावक की हिंसा दो प्रकार की मानी जाती है - १३७ १) संकल्पी और २) आरंभी । श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग कर सकता है। किन्तु आरंभी हिंसा का नहीं। क्योंकि आरंभ किये बिना जीवन में कोई भी कार्य श्रावक कर नहीं सकता। हिंसा अणुव्रत के ऊपर ही शेष चार अणुव्रत आधारित है। स्थूल झूठ का त्याग ही दूसरा अणुव्रत है। श्रावक कन्यासंबंधी, गो आदि पशु संबंधी, भूमि संबंधी, जमा, रकम, धरोहर आदि के हड़प जाने संबंधी एवं झूठी साक्षी लेखनादि संबंधी इन पाँच प्रकार के बड़े झूठ नहीं बोलते। १३८ सत्य जीवन का अमृत है। आंशिक सत्य का पालक ही चोरी की वस्तू का स्थूल रूप से त्याग करता है । १३९ चौथे व्रत में दो प्रकार के व्रती माने जाते हैं - १ ) स्वदार संतोष और २) परदार निवृत्ति । स्वदारसंतोषव्रती परस्त्रीसेवन और वेश्यागमन का स्थूल त्याग करता है। परंतु परदारनिवृत्ति - पालक; परस्त्रीसेवन का तो त्याग करता है; परंतु वेश्यागमन का त्याग नहीं करता, क्योंकि वेश्या किसी की परिगृहीत स्त्री नहीं है। इस व्रत की आराधना एक करण और तीन योग से की जाती है । १४० पाँचवें अणुव्रत में स्थूल परिग्रह का त्याग किया जाता है। इस व्रत को इच्छा परिमाण व्रत भी कहा है । इच्छा का निरोध नौ प्रकार से बताया है - क्षेत्र (श्वेत), वस्तू, हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य और कुप्य या गोप्य (तांबा, पीतलादि)। इसके अतिरिक्त मकानादि का परिमाण करना भी इच्छा परिमाण व्रत है। यह व्रत एक करण (करू नहीं) और तीन योग (मन, वचन, काय) से स्वीकार किया जाता है । १४१ तीन गुणव्रत अणुव्रतों के पालन में उपकारक एवं सहायक होने के कारण दिशा-परिमाण व्रत, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत और अनर्थदण्ड- परिमाण व्रत इन तीन को गुणव्रत कहते हैं । १४२ दिशा - परिणाम व्रत में दिशा (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर), विदिशा (ईशान्य, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य कोन), ऊपर एवं नीचे इन दशों दिशाओं की मर्यादा की जाती है। इन दिशाओं में गमनागमन करने की सीमा का निश्चित करना ही पहला गुणव्रत है । १४३ यह उत्तरगुण होने के कारण इसे गुणव्रत की संज्ञा दी गयी है। इस व्रत का पालन जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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