________________
५) प्रसिद्ध देशाचार-पालक, ६) अवर्णवादी न हो, (निन्दक न हो), ७)यथार्थ स्थान हो, ८) सत्संगति, ९) मातृ-पितृ भक्त, १०) उपद्रव स्थान त्यागी, ११) निन्दक कार्य त्यागी, १२) आयानुसार व्यय करने वाला, १३) वैभव के अनुसार वेषभूषा, १४) बुद्धि के आठ गुणों (शुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, ऊह, अपोह, अर्थविज्ञान, तत्त्वज्ञान), का धनी, १५) प्रतिदिन धर्म-श्रवण-कर्ता, १६) अजीर्ण होने पर भोजन का त्यागी, १७) समयानुसार पथ्य भोजन कर्ता, १८) त्रिवों (धर्म, अर्थ, काम) का परस्पर, अबाधक रूप से साधक, १९) शक्ति अनुसार अतिथि सेवा, २०) अभिनिवेश (मिथ्या -आग्रह) से दूर, २१) गुणों का पक्षपाती, २२) निषिद्ध देश-काल-चर्या का त्याग, २३) बलाबल-सम्यक् ज्ञाता, २४) व्रत नियम में स्थिर ज्ञानवृद्धों का पूजक, २५) आश्रितों का पोषक, २६) दीर्घदर्शी, २७) विशेषज्ञ, २८) कृतज्ञ, (दुसरे का उपकारक), २९) लोकप्रिय, ३०) लज्जावान, ३१) दयालु (दयावान), ३२) सौम्य स्वभावी, ३३) परोपकारी कर्मठ, ३४) षट् अंतरंग शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, मत्सर) के त्याग में उद्यत और ३५) इन्द्रियों का विजेता, हैं। इन पैंतीस गुणों से सम्पन्न सामान्य श्रावक भी सद् गृहस्थ ही है। विशेष वर्ग के अन्तर्गत बारह व्रतधारी श्रावक का वर्णन है।
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत (कहीं-कहीं शिक्षाव्रत के अन्तर्गत ही गुणव्रत का समावेश कर लिया गया है) ये बारह व्रत हैं। १३३ इनमें पांच अणुव्रत को मूलगुण और गुणव्रत-शिक्षाव्रत को उत्तरगुण माना गया है। दिगम्बर परम्परा में मूलगुण
और उत्तरगुण तो ये ही माने हैं, परन्तु मूलगुण में अंतर है- १३४ मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फल (पीपल, उदुम्बर, पिलखन, बड, कठुमर) इन आठ को मूलगुण माना है। कहीं-कहीं पाँच अणुव्रत और तीन मकार को अष्टमूल माना गया है। इस प्रकार द्वादशव्रत - श्रावक धर्म सम्यक्त्वमूलक होता है।
द्वादशव्रतों का स्वरूप सावद्य योगों से पूर्णतया निवृत्त होना अथवा पापरूप व्यापार-आरंभ-समारंभ से आत्मा को नियंत्रित करना पंच महाव्रतों का पालन करना चारित्र कहलाता है। मुनि तो सावध योगों से पूर्णतया निवृत्त और अहिंसादि पांच महाव्रतों का पालन करने वाले होने से सब प्रकार की हिंसा आदि से मुक्त हैं। किंतु श्रावक मर्यादा सहित चारित्र (संयम) का पालन करने वाले, अहिंसा, अणुव्रत आदि श्रावक के बारह व्रतों के धारक होने से आंशिक त्यागी, देशविरति संयमी क. गते हैं।
पांच अणुव्रत स्थूल हिंसा-झूठ-चोरी-मैथुन और परिग्रह का त्याग अणुव्रत कहा जाता है। ये जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
१३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org