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५) यथाख्यात चारित्र
जिस चारित्र में कषाय का उदय लेशमात्र भी नहीं है। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से वीतराग चारित्र होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं। १२६ इसके छाद्यस्थिक और अछाद्यस्थिक (केवली) यह दो भेद हैं। १२७ यथाख्यात चारित्र के इन दोनों भेदों का कारण मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय तथा चारों घाति कर्मों का क्षय होकर आत्मा के स्वरूप में अवस्थित होने रूप दशा की प्राप्ति होना है। छाद्यस्थिक यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वालों को होता है। ग्यारहवें गुणस्थानों में तो मोहनीय कर्म (कषायों) का उपशम हो जाने से उदय नहीं रहता है। उसकी सत्ता मात्र रहती है। किन्तु बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से कषायों की सत्ता भी नहीं रहती है। ग्यारहवें गुणस्थान में यद्यपि मोहनीय कर्म नहीं है। किन्तु अन्य छद्मों (घाति कर्मों) के रहने से इन दोनों गुणस्थानवर्ती जीवों के चारित्र को छाद्मस्थिक यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
अछाद्मस्थिक यथाख्यात चारित्र केवलियों को होता है। क्योंकि केवली को छद्मों ( चार घातिकर्मों) का सर्वथा क्षय हो जाने से अछाद्यस्थिक दशा की प्राप्ति हो जाती है। केवली के दो भेद हैं- सयोगिकेवली और अयोगिकेवली । अतः इस अछाद्यस्थिक यथाख्यात चारित्र के भी सयोगिकेवली यथाख्यात और अयोगिकेवली यथाख्यात यह दो भेद हो जाते हैं। सयोगिकेवली के चारित्र को सयोगि- केवली यथाख्यात और अयोगिकेवली के संयम को अयोगि केवली यथाख्यात कहते हैं।
६) देशविरति चारित्र (श्रावक धर्म)
कर्मबंधजनक आरंभ-समारंभ से आंशिक निवृत्त होना, निरापराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा न करना देशविरति चारित्र कहलाता है । १२८ इसका अधिकारी सम्यग्दृष्टिश्रावक (गृहस्थ ) है, जो मूल गुण और उत्तरगुण में निष्ठा रखता है, अर्हन्तादि पंच परमेष्टि (पंच गुरुओं को) को ही अपना शरण मानता है, दानादि जिसके प्रधान कार्य हैं तथा सतत ज्ञानामृत का इच्छुक होता है। वही श्रावक कहलाता है । १२९ पूर्वाचार्यों ने उन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । कालान्तर में इन्हें ही पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक इन तीन वर्गों में विभाजित कर दिया गया। जैन धर्म को स्वीकार करने वाला पाक्षिक श्रावक, १२ व्रतधारी नैष्ठिक श्रावक और ग्यारह पडिमा धारक समाधिपूर्वक मरण करने वाला साधक श्रावक कहलाता है। १३० पुनः श्रावक धर्म को दो भागों में विभाजित कर दिया जाता है - १३१ सामान्य और विशेष । सामान्य श्रावक धर्म में मार्गानुसारी के पैंतीस गुण- १ - १३२ १ ) न्यायार्जित वैभव, २) शिष्टाचार प्रशंसक, ३) समान कुल एवं शील गुण सम्पन्न अन्यगोत्रिय के साथ विवाह संबंध, ४) पाप भीरू,
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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