________________
सामायिक के दो भेद हैं - इत्वर और यावत्कथित। इत्वर सामायिक अभ्यासार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिए पहले पहल दिया जाता है और जिसकी कालमर्यादा उपस्थापन पर्यन्त बड़ी दीक्षा लेने तक-मानी जाती है। यह संयम भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करनेवालों को प्रतिक्रमण सहित अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रत अंगीकार करने पड़ते हैं तथा इसके स्वामी स्थिरकल्पी होते हैं।
यावत्कथित सामायिक संयम ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है। यह संयम भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में मध्यवर्ती दो से लेकर तेईस तीर्थंकर पर्यन्त - बाईस तीर्थकरों के शासन में ग्रहण किया जाता है। इस संयम को धारण करनेवालों के महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है। १२२
२) छेदोपस्थापनीय चारित्र पूर्व संयम पर्याय को छेदकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना छेदोपस्थापनीय संयम कहलाता है।१२३ इसके सातिचार और निरतिचार नामक दो भेद होते हैं। जो किसी कारण से मूलगुणों-महाव्रतों का भंग हो जाने पर फिर से ग्रहण किये जाते हैं, उसे सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं और छेदोपस्थापनीय चारित्र-इत्वर सामायिक संयम वाले बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं, उसे निरतिचार कहते हैं। यह चारित्र (संयम) भरत, ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधुओं को होता है। और एक तीर्थ के साधु जब दूसरे तीर्थ में सम्मिलित होते हैं तब ग्रहण करते हैं।
३) परिहारविशुद्ध चारित्र इसका वर्णन आगे करेंगे।
४) सूक्ष्मसंपराय चारित्र जिन क्रोधादि कषायों द्वारा संसार में परिभ्रमण होता है, उनको संपराय कहते हैं। जिस चारित्र में संपराय (कषाय) का उदय सूक्ष्म (अति स्वल्प) रहता है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र है। १२४ इसमें लोभ कषाय का उदयमात्र होता है और यह सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है। सूक्ष्मसंपराय के दो भेद होते हैं-१२५ संक्लिश्यमानक
और विशुद्ध्यमानका उपशम श्रेणि से गिरने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय होते वाला चारित्र 'संक्लिश्यमानक सूक्ष्मसंपराय चारित्र' है। क्योंकि पतन होने के कारण उस समय परिणाम संक्लेश प्रधान ही होते जाते हैं। लेकिन 'विशुद्ध्यमानक सक्ष्मसंपराय चारित्र' उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी का आरोहण करने वालों को दसवें गुणस्थान में होता है। क्योंकि श्रेणी आरोहण के समय परिणाम विशुद्धि प्रधान ही होते हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
१३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org