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________________ होती है। क्योंकि मिथ्याज्ञानांधकार को दूर करने में सूर्य चन्द्र का प्रकाश समर्थ नहीं है। एकमात्र सम्यग्ज्ञान ही तीक्ष्ण खड्ग और तीसरा नेत्र है। मोक्ष की प्राप्ति कमों के क्षय से होती है। कमों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है और वह सम्यग्ज्ञान ध्यान से सिद्ध होता है। ध्यान से ही ज्ञान की एकाग्रता होती है। इसी कारण ध्यान में ही आत्मा का हित है। ११३ सम्यक चारित्र का स्वरूप अध्यात्म साधना पद्धती में त्रिविध साधना को अधिक महत्त्व दिया गया है। तीनों का समन्वय रूप ही मोक्ष है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों भी मोक्ष के कारण हैं फिर भी चारित्र साक्षात् कारण है। मोक्ष का सर्व श्रेष्ठ अंग चारित्र है। चारित्र जैन साधना का प्राण है। जैन पारिभाषिक शदावलि में चारित्र शब्द का अर्थ आचरण किया है। पहले देखना फिर जानना तदनन्तर इन्द्रियों के विषय तथा कषायों पर विजय प्राप्त करना ही चारित्र है। . चारित्र का लक्षण चारित्र का मूल समता है। समता के बिना सम्यक् आचरण नहीं हो सकता। ज्ञानियों का कथन है कि 'समस्त पापकारी (सावधक्रिया) क्रिया से निवृत्त होना (विरत होना), कषायों से विरत होना, निर्मलता, उदासीनता (परपदार्थों से विरक्त) एवं आत्म भावों में लीन होना ही चारित्र है। ११४ __ चारित्र के भेद आगम ग्रंथों में चारित्र के पांच एवं सात प्रकार बताये हैं -११५ १) सामायिक, २) छेदोपस्थापनीय, ३) परिहार-विशुद्धि, ४) सूक्ष्म-संपराय, ५) यथाख्यात, ६) देशविरति, ७) सर्वविरति। १) सामायिक चारित्र रागद्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं और जिस संयम से समभाव की प्राप्ति हो वह सामायिक संयम कहलाता है। अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र को सम कहते हैं और उनकी आय-लाभ-प्राप्ति होने को समाय तथा समाय के भाव को सामायिक कहते हैं।११६ सामायिक को चौदह पूर्व का सार तथा समस्त द्वादशांगी का रहस्य कहा है। ११७ प्राणी मात्र पर समभाव रखना, पाँचों इन्द्रियों पर संयम रखना, हृदय में शुभ भावना, आर्त-रौद्र ध्यान का त्याग एवं धर्म-शुक्ल ध्यान का सतत चिंतन करना ही सामायिक है। १९८ तृण, सोना, मिट्टी, शत्रु, मित्र आदि में रागद्वेषरहित समभाव की साधना में निरंतर रत रहना - आत्मा की स्वभाव परिणति ही सामायिक है।११९ सामायिक के छह प्रकार हैं -१२० नाम, स्थापना, दूव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इन सब में भाव सामायिक को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। स्व स्वरूप में रमण करना ही भाव सामायिक है।१२१ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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