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________________ श्रुत, अनुयोग श्रुत, अनुयोग समास श्रुत, प्राभृत- प्राभृत श्रुत, प्राभृत-प्राभृतसमास श्रुत, प्राभृत श्रुत, प्राभृत समास श्रुत, वस्तु श्रुत, वस्तुसमास श्रुत, पूर्व श्रुत, पूर्व समास श्रुत। ग्रन्थ की अपेक्षा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगबाह्य के चौदह भेद हैं - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कप्प, व्यवहार, कप्पियाकप्पियं, महाकप्प, पुंडरीक, महापुंडरीक और निषिद्धिका । और भी इसके अनेक प्रकार हैं। अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं- आचार (आयार), सूयगड़ (सूत्रकृत), ठाण, समवाय, व्याख्याप्रज्ञाप्ति, भगवती, नायाधम्मकहा, उपासकदशांग, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विवागसूत्र और दृष्टिवाद | वर्तमान में अंतिम अंग विद्यमान नहीं है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के अनेक दृष्टि से भेद किए गये है । १०८ अवधिज्ञान के दो भेद हैं- भवप्रत्यय तथा गुणप्रत्यय दोनों ही अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर होते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक जीवों को होता है । गुण प्रत्यय मनुष्य और तिर्यंच जीवों को होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में वृद्धि - हासजन्य तरतमता होने से अल्पाधिकता होती है। इसके निम्नलिखित छह भेद हैंअनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अप्रतिपाती। कही-कहीं प्रतिपाती और अप्रतिपाती के स्थान पर अनवस्थित और अवस्थित नाम मिलते हैं। विषयादि की दृष्टि से अवधिज्ञान के तीन भेद मिलते हैं - देशावधि, परमावधि, और सर्वावधि । १०९ मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति । इन दोनों के ऋजुमनोगत, ऋजुवचनगत, ऋजुकायगत तथा विपुलमनोगत, विपुलवचनगत और विपुलकायगत ऐसे तीन -तीन भेद हैं। ऋजुमति ज्ञान प्रतिपाती (नष्ट होना) है और विपुलमति ज्ञान अप्रतिपाती है। अप्रतिपाती विपुलमति ज्ञान के बाद अवश्य ही केवल ज्ञान होता ही है । ११० अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकलप्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है । ११९ ज्ञान के आठ अंग हैं। ११२ (व्यंजनाचार, अर्थाचार, उभयाचार, कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार, अनिन्हवाचार) जिसके द्वारा सम्यग्ज्ञान उपलब्ध होता है। ध्यान मिथ्याज्ञान संसारवर्द्धक है और सम्यग्ज्ञान विकारों का विनाशक है। मिथ्याज्ञान का तिमिर अंधकार ध्यान के द्वारा ही नष्ट होता है। ध्यानयोग की प्राप्ति सम्यग्ज्ञान के बाद जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १३५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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