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________________ केवलज्ञान का अन्य कोई अवान्तर भेद नहीं होता है। किन्तु मतिज्ञानादि शेष रहे चारों ज्ञानों के क्षायोपशमिक होने से अवान्तर भेद होते हैं। __ मतिज्ञान के चार भेद हैं और क्रमशः अट्ठाईस, तीन सौ छत्तीस अथवा तीनसौ चालीस भेद होते हैं, जैसे कि'०७ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद हैं। इनमें से ईहा, अवाय और धारणा के प्रभेद नहीं होते हैं। किन्तु अवग्रह के दो भेद हैं - व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। व्यंजनावग्रह मन और चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्शनेन्द्रिय आदि चार इन्द्रियों से होता है। मन और चक्षुरिन्द्रिय ये दोनों प्राप्यकारी नहीं हैं, अपितु अप्राप्यकारी हैं। इसी कारण व्यंजनावग्रह के १) स्पर्शनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, २) रसनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ३) घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह और ४) श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह - ये चार भेद होते हैं। व्यंजनावग्रह का जघन्य काल आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है और उत्कृष्ट श्वासोश्वास-पृथक्त्व, अर्थात् दो श्वासोश्वास से लेकर नौ श्वासोश्वास जितना है। अर्थावग्रह आदि चारों मतिज्ञान रूप होने के कारण पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थ का ज्ञान करते हैं। इसलिए उनका पांच इन्द्रियों और मन के साथ गुणा करने से छह-छह भेद हो जाते हैं। इन चारों के (अर्थावग्रह, ईहा, अवाय, धारणा) छह-छह भेदों को मिलाने से कुल २४ भेद होते हैं तथा इन भेदों में व्यंजनावग्रह के चार भेदों को और मिलाने से मतिज्ञान के कुल २८ हो जाते हैं। वे क्षयोपशम और विषय की विविधता से बारह-बारह (बहु, अल्प, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र (चर), अनिश्रित, निश्रित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव, अध्रुव) प्रकार के होते हैं। उपरोक्त २८ भेदों को बहु आदि बारह भेदों से गुणा करने पर मतिज्ञान के ३३६ भेद हो जाते हैं। इन ३३६ भेदों में अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के औत्पात्तिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, कर्मजाबुद्धि और पारिणामिकी बुद्धि - इन चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के कुल ३४० भेद होते हैं। इसकी कालमर्यादा अन्तर्मुहूर्त की है। मतिज्ञान के अनन्तर क्रमप्राप्त श्रुतज्ञान के दो भेद हैं - अक्षरात्मक और अनक्षरात्मका श्रोत्रेन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक जो ज्ञान होता है, उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय जन्य मतिज्ञानपूर्वक जो ज्ञान होता है, - उसे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं। क्षयोपशम की अपेक्षा उनके चौदह और बीस भेद हैं - श्रुतज्ञान के चौदह भेद :- अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत, संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यक् श्रुत, मिथ्या श्रुत, सादि श्रुत, अनादि श्रुत, सपर्यवसित श्रुत, अपर्यवसित श्रुत, गमिक श्रुत, अगमिक श्रुत, अंगप्रविष्ट श्रुत, अंगबाह्य श्रुत। श्रुतज्ञान के बीस भेद :- पर्यायश्रुत, पर्यायसमासश्रुत, अक्षरश्रुत, अक्षरसमासश्रुत, पदश्रुत, पदसमासश्रुत, संघातश्रुत, संघातसमासश्रुत, प्रतिपत्तिश्रुत, प्रतिपत्तिसमास १३४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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