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सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं। क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को अनेकान्त दृष्टि से देखता है और उसका ज्ञान-हेय-उपादेय की बुद्धि से युक्त होता है। लेकिन मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व्यवहार में समीचीन होने पर भी प्रत्येक वस्तु को एकांत दृष्टि से जानने वाला होता है। उसके ज्ञान में हेय-उपादेय का विवेक नहीं होता है।
मनःपर्याय और केवल यह दो ज्ञान सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होते हैं। इसलिए यह दोनों अज्ञान रूप नहीं है।
मतिज्ञान आदि आठ प्रकार के ज्ञान साकार इसलिए कहलाते हैं कि ये वस्तु के प्रति नियत आकार को ग्रहण करने वाले हैं। यानी ज्ञेय पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक उभय रूप हैं। उनमें ज्ञान के द्वारा विशेष रूप (विशेष आकार) जाना जाता है। __मतिज्ञान आदि का क्रम :- प्रथम के दो ज्ञान मति और श्रुत समस्त संसारी जीवों को होते हैं। अविकास की चरमसीमा में विद्यमान सूक्ष्म निगोद आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी इन दोनों की सत्ता विद्यमान है। इसलिए इन दोनों को प्रथम रखा है। इन दोनों में भी प्रथम नति और बाद में श्रुतज्ञान है। अवग्रहादि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। श्रुतज्ञान इन्द्रिय अनिन्द्रिय रूप होने के कारण मतिज्ञान का विशिष्ट भेद है। इसलिए मतिज्ञान के बाद श्रुतज्ञान का क्रम आया। इन दोनों ज्ञानों में, स्वामी-काल-कारण एवं परोक्ष इन सबकी समानता है। १०२ काल-विपर्यय-स्वामी-लाभ इन चारों१०३ की समानता होने के कारण इन दो ज्ञान के बाद अवधिज्ञान का क्रम रखा। छद्मस्थ-विषयभाव इन तीनों की१०४ साम्यता के कारण अवधिज्ञान के बाद मनःपर्याय ज्ञान का क्रम आया। मनःपर्याय के बाद केवलज्ञान रखने का कारण यही है कि मनःपर्ययज्ञान अप्रमत्त संयमी को ही होता है और केवलज्ञान भी उन्हीं को ही होता है। १०५
ज्ञान के भेद सामान्यतः स्व पर प्रकाशक की दृष्टि से ज्ञान एक ही प्रकार का है। ज्ञान का कार्य पदार्थों को जानना है। क्षयोपशम की तरतमता से ज्ञान कभी एक प्रकार के पदार्थों को तो कभी अनेक प्रकार के पदार्थों को जानता है। कभी पदार्थ का शीघ्र ज्ञान करता है तो कभी विलम्ब से। कभी पदार्थ को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देखता है। क्षयोपशम की तारतम्यता के कारण ही ज्ञान के पांच भेद किए गये हैं - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलज्ञान। इन्हीं पाँच को संक्षेप में दो प्रकार का कहा है - प्रत्यक्ष और परोक्ष। पांच ज्ञानों में से आदि के ज्ञान-मतिज्ञान और श्रुत निश्चयनय की अपेक्षा परोक्ष हैं। किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा प्रत्यक्षज्ञान भी कहे जाते हैं। इसलिए इन दोनो ज्ञानों को व्यावहारिक प्रत्यक्ष और शेष रहे अवधिज्ञान आदि तीनों ज्ञानों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं।०६ मतिज्ञान को अभिनिबोधक ज्ञान भी कहते हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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