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श्रुतज्ञान :- जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, जिसमें शद्ब और अर्थ का संबंध भासित होता है, जो मतिज्ञान के बाद होता है तथा शब्द व अर्थ की पर्यालोचना के अनुसरणपूर्वक इन्द्रिय मन के निमित्त से होने वाला है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । ९५ यह ज्ञान त्रैकालिक (अतीत, वर्तमान, भावी) विषयों में प्रवृत्त होता है।
अवधिज्ञान :- मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए साक्षात् आत्मा के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को मर्यादापूर्वक पदार्थ ग्रहण करना अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा रुपी पदार्थों को विषय करने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं । ९६ अवधि, मर्यादा, सीमाये सभी एकार्थवाची शब्द हैं । ९७
मनः पर्यायज्ञान संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को (मन के पर्यायों को ) जानने वाले ज्ञान को मनःपर्यायज्ञान कहते हैं । ९८ इस ज्ञान के होने में इन्द्रिय और मन की सहायता नहीं किन्तु आत्मा के विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा होती है।
केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म का निःशेष रूप से क्षय हो जाने पर जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी त्रैकालिक सब वस्तुएँ (समस्त पर्यायों सहित) युगपत् (एक साथ) जानी जाती हैं उसे केवलज्ञान कहते हैं । ९९ यह ज्ञान परिपूर्ण अव्याघाती, असाधारण, अनन्त, स्वतंत्र और अनन्तकाल तक रहने वाला होता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति क्षयोपशमजन्य मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय छाद्मस्थिक ज्ञानों के क्षय होने पर होती है। प्रथम के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और अंतिम केवलज्ञान क्षायिक कहलाता है। इसलिए इस ज्ञान को केवल एक, असहायी ज्ञान कहते हैं । १००
मिथ्यादर्शन के उदय होने से होने वाले विपरीत मति उपयोग को
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मति अज्ञान :मति अज्ञान कहते हैं।
श्रुत अज्ञान :- मिथ्यात्व के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान को श्रुत - अज्ञान कहते हैं। चौर शास्त्र, हिंसाशास्त्र आदि हिंसादी पाप कर्मों के विधायक तथा असमीचीन तत्त्व के प्रतिपादक ग्रंथ कुश्रुत और उनका ज्ञान श्रुत अज्ञान कहलाता है।
अवधि - अज्ञान :इसको विभंग ज्ञान भी कहते हैं। मिथ्यात्व के उदय से रूपी पदार्थों के विपरीत अवधिज्ञान को अवधि अज्ञान (विभंग ज्ञान) कहते हैं। १०१
मति, श्रुत और अवधि इन तीन के मिथ्यारूप होने का कारण यह है कि जब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होता है तब पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का बोध नहीं हो पाता है। तथा वस्तु स्वरूप का विपरीत या निरपेक्ष ज्ञान होता है और अवस्तु में वस्तु तथा वस्तु में अवस्तु रूप बुद्धि होती है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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