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में ज्ञान मिथ्याज्ञान, चारित्र कुचारित्र एवं ध्यान कुध्यान में परिणत हो जाता है। जिसके फलस्वरूप अनन्त संसार बढ़ता है। सम्यग्दर्शन से विकारों का शोधन होता है। चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान करना ही दर्शन विशुद्धि है। सम्यग्दर्शन ध्यान के लिए मूल, द्वार, आधार एवं दीपस्तम्भ के समान है। सम्यग्दृष्टि साधक ध्यान के बल से नारक, तिथंच गति, नपुंसक-वेद, स्त्रीपर्याय, विकल अंगोपांग, अल्पायु एवं दरिद्रता को प्राप्त नहीं कर सकता। ध्यान में सम्यग्दर्शन सुदृढ़ नींव का कार्य करता है। जितनी सुदृढ़ नींव उतना महल मजबूत बनता है। सम्यग्दर्शन सम्पन्न जीव यदि मनुष्य भव में जन्म लेता है तो ज्ञानसम्पन्न, गुणसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न दृढ़धर्मी, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रतापी बनता है। सम्यग्दृष्टि जीव यदि स्वर्ग में उत्पन्न होता है, तो अणिमा-महिमा आदि अष्ट ऋद्धियों को प्राप्त करके सबका स्वामी बनता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन गुण से सम्पन्न ध्यानी साधक अजर अमर अविनाशी अव्याबाध अक्षय सुख को प्राप्त करता है।९२
२) सम्यग्ज्ञान का स्वरूप ... ज्ञान आत्मा का निज गुण है तथा स्व पर प्रकाशक है। व्यवहारनय से आत्मा समस्त द्रव्यों को जानता है और निश्चयनय की दृष्टि से 'स्व'को ही जानता है। ज्ञान ही आत्मा है। ज्ञान के अभाव में जड़त्व की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। लब्ध अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद तथा असंज्ञी जीवों में भी ज्ञान की अल्प मात्रा विद्यमान है ही। किन्तु उनका ज्ञान ज्ञानानवरणादि कमों के गाढ़ आवरणों से आच्छादित होने के कारण, निजस्वरूप को नहीं जान पाते हैं। सवर्ण पाषाण एवं बादलों के हटते ही सोना एवं सूर्य का तेज निखर आता है। वैसे ही कर्मों के आवरण उपशम, क्षय, क्षयोपशम एवं बाह्य कारण धर्म श्रवण, एकाग्रता, शुद्ध आहार, शुद्धि एवं धर्म जागरण से मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिणत हो जाता है। मिथ्याज्ञान के कारण ही अनादि काल से संसार परिभ्रमण हो रहा है। उससे मुक्ति पाने के लिए सम्यग्दर्शन से प्राप्त सम्यग्ज्ञान ही मुख्य साधन है। इन दोनों के बीच में कार्य-कारण का संबंध है।
सम्यग्ज्ञान का लक्षण जो ज्ञान संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय भावों से रहित यथार्थ पदार्थ का ज्ञाता एवं स्व पर प्रकाशक है, वही सम्यग्ज्ञान है।९३ यथार्थ ज्ञान ही बोधिज्ञान का जनक है। बोधिज्ञान से ही बंधन कटते हैं। जिससे संसारवृद्धि और आध्यात्मिक पतन हो वह मिथ्याज्ञान है।
- मतिज्ञान आदि का लक्षण:मतिज्ञान :- मन और इन्द्रिय की सहायता द्वारा होनेवाले पदार्थ के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं।१४ अधिकतर यह वर्तमान कालिक विषयों को जानता है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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