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________________ उत्पन्न होता है। प्रतिमा के दर्शन अथवा साधुओं के दर्शन से पूर्वोक्त रीति से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है और ग्रन्थि भेदन एवं गुरुपदेश के सुनने से उत्पन्न होने वाला सम्यक्त्व अधिगम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के भेद __ आगम एवं अन्य ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन के स्वरूप, उत्पत्ति, पात्र की अपेक्षा, श्रेणि, रुचि एवं विशुद्धि की दृष्टि से विभिन्न भेद किये गये हैं।९१ जैसे कि बाह्य-आभ्यंतर, व्यवहार-निश्चय, साध्य-साधना, निसर्गज-अभिगमज, द्रव्य-भाव, पौद्गलिकअपौद्गलिक , सराग-वीतराग सम्यक्त्व, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, सासादान सम्यक्त्व, कारक सम्यक्त्व, रोचक सम्यक्त्व, दीपक सम्यक्त्व, निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीज रुचि, अभिगम रुचि, विस्तार रुचि, क्रिया रुचि, संक्षेप रुचि, धर्म रुचि, दिगम्बरपरम्परानुसार - आज्ञा सम्यक्त्व, मार्ग सम्यक्त्व, उपदेश सम्यक्त्व, सूत्र सम्यक्त्व, बीज सम्यक्त्व, संक्षेप सम्यक्त्व, विस्तार सम्यक्त्व, अर्थ सम्यक्त्व, अगाढ-सम्यक्त्व एवं अवगाढ या परमावगाढ-सम्यक्त्व, तथा विशुद्ध सम्यक्त्व के ६७ भेद - चार प्रकार की श्रद्धा (परमार्थ संस्तव, परमार्थ-दर्शन, कुदर्शज का परिहार और सम्यक्त्व श्रद्धा), तीन प्रकार के लिंग (शुश्रूषा, धर्मराग एवं वैयावृत्य - पंचाचार पालक गुरु सेवा), दस प्रकार का विनय (अरिहन्त, सिद्ध, चेइय, (चैत्य, ज्ञान), श्रुत, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन, गण, संघ आदि), तीन प्रकार की शुद्धि (मन-वचन-कायशुद्धि), पाँच प्रकार के दूषण का त्याग (शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा, मिथ्यादृष्टि संस्तव), आठ प्रकार की सम्यक्त्व प्रभावना (प्रावचनी, धर्मकथी, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्यासंपन्न (विद्यावान्), सिद्ध व कवि), पाँच प्रकार के सम्यक्त्व भूषण (जिनशासनकुशलता, प्रभावना, तीर्थसेवणा, स्थिरता और भक्ति), पाँच लक्षण (शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिक्य), छह प्रकार की यतना (देवगुरु धर्म को वन्दन, नमस्कार, दान, अनुप्रदान, आलाप तथा संलाप करते हुए विवेकयतना रखना), छह प्रकार के आगार (राजाभियोग, गणाभियोग, बलाभियोग, देवाभियोग, गुरुनिग्रह एवं वृत्तिकान्तार), छह प्रकार की भावना (मूल, द्वार, नींव, अधार, एवं पात्र), छह प्रकार के स्थानक (आत्मा है, वह नित्य है, वह स्वकर्म का कर्ता है, वह कृतकर्मों का भोक्ता है, वह मोक्षगामी है, एवं मुक्ति का उपाय है), इस प्रकार विशुद्धि सम्यक्त्व के ४+३+१०+३+५+८+५+५+६+६+६+६=६७ भेद हैं। सम्यग्दर्शन में ध्यान आध्यात्मिक साधना में दर्शन विशुद्धि अत्यावश्यक है। दर्शन विशुद्धि के बिना ज्ञान, चारित्र, तप, जपादि की समस्त साधनायें निरर्थक हैं। क्योंकि दर्शन शुद्धि के अभाव १३० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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