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क्षायिक सम्यक्त्व :- अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क और दर्शनमोहनीयत्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षय से आत्मा में जो तत्त्वरुचि रूप परिणाम प्रगट होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है।८५ क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता है तथा मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मित या शंकित नहीं होता है। आयुबंध करने के बाद क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले जीव तो तीन-चार भव में मोक्ष जाते हैं और अबद्धायुष्क (अगले भव की आयु बंध से पहले क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले) वर्तमान भव में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व आने पर कभी जाता नहीं। अतः यह सादि अनन्त है। ८६
उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में कोई अंतर नहीं है। क्योंकि प्रतिपक्षी कमों का उदय दोनों में नहीं है फिर भी विशेषता यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व में प्रतिपक्षी कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उपशम सम्यक्त्व में प्रतिपक्षी कमों की सत्ता रहती है।
सासादन :- औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होने के समय जीव का जो परिणाम होता है उसे सासादन सम्यक्त्व कहते हैं। इसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका प्रमाण है। इसके समय में अनन्तानुबंधी कषायों का उदय होने से जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते हैं, जिससे सम्यक्त्व की विराधना होती है। आन्तरिक कारण मुख्यतः सासादन को छोड़कर उपरोक्त तीन ही हैं।
सम्यग्दर्शन का लक्षण जीवादि पदार्थों में परमार्थ से, न कि दूसरों के आग्रह से, सत्यता की जो प्रतीति होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। अथवा देव गुरु आदि विषय में तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, आठ मल तथा छह अनायतन - इन पच्चीस दोषों से रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। वास्तव में सम्यग्दर्शन एक प्रकार का अनुभव या संवेदन है जिसे केवलज्ञानी ही प्रत्यक्ष कर सकते हैं। फिर भी सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व के लक्षणानुसार हम उनके स्वरूप को जान सकते हैं। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य अथवा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति करनेवाला सरागसम्यग्दर्शन और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है।८८ पदार्थों के निश्चय करने की रुचि से मतलब है कि उपादेय से पदार्थों को यथार्थ देखकर जानकर असत्यदार्थों का त्याग करना और सत्पदार्थों का ग्रहण करना ही (जानना ही) सम्यग्दर्शन है।८९ उस सम्यग्दर्शन के दो हेतु हैं-९० १) निसर्ग और २) अधिगमा निसर्ग स्वभाव को कहते हैं। शुभ परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व प्रन्थि का भेदन करके अनिवृत्तिकरण नामक परिणामों को प्राप्त करता है। तब उसके स्वभाव से ही तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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