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.. लेकिन औपशामिक के उपशम शब्द का अर्थ क्षयोपशम के उपशम शब्द की व्याख्या से कुछ भिन्न है। अर्थात क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकोदय संबंधी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मंद में परिणमन होना है। किन्तु औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है। क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी चालू रहता है। यह क्षय प्रदेशोदय रूप होता है किन्तु उपशम में यह बात नहीं है, क्योंकि जब कर्म का उपशम होता है तभी से उसका क्षय रुक जाता है, अतएव इसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता नहीं रहती है। इसीलिए उपशम अवस्था तभी मानी जाती है जब कि अंतरकरण (अन्तरकरण के अंतर्मुहूर्त में उदय पानेवाले योग्य दलिकों में से कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं। कुछ दलिक बाद में उदय पाने योग्य बना दिये जाते हैं) होता है और अन्तरकरण में वेद्य दलिकों का अभाव होता है। सारांश यह है कि औपशमिक सम्यक्त्व में दलिकों का विपाक और प्रदेश से भी वेदन नहीं होता है, किन्तु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेश की अपेक्षा वेदन होता है।।
क्षयोपशम के समय प्रदेशोदय या मंद विपाकोदय होता है किन्तु उपशम के समय वह भी नहीं होता है। औपशमिक सम्यक्त्व के समय दर्शन-मोहनीय के किसी प्रकार का उदय नहीं होता किन्तु क्षयोपशपम सम्यक्त्व के समय सम्यक्त्व मोहनीय का विपाकोदय
और मिथ्यात्व मोहनीय का प्रदेशोदय होता है। इसीलिए औपशमिक सम्यक्त्व को भाव सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को द्रव्य सम्यक्त्व भी कहते हैं।
औपशमिक और क्षायोशमिक सम्यक्त्व की उक्त व्याख्यागत विशेषता के अतिरिक्त दोनों में यह विशेषता है कि उपशम और क्षयोपशम होने योग्य घाति -कर्म (१-४ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय ज्ञानावरण, ५-७ चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनावरण, ८-११ संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, १२-२० हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, २१-२५ दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय। यह २५ प्रकृतियाँ देशघाती हैं) हैं, लेकिन औपशमिक सम्यक्त्व में तो घाति कर्मों में से सिर्फ मोहनीय कर्म का उपशम होता है। लेकिन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में क्षायोपशम सभी घातकर्मों का होता है। घाति कर्म के देशघाति (जो ऊपर २५ प्रकृतियों के नाम बतायें हैं) और सर्व घाति (१) केवलज्ञानावरण, २) केवलदर्शणावरण, ३-७) निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धिं, ८-१९) अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क (क्रोध-मान-माया-लोभ), अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, २० मिथ्यात्व। यह २० प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं) यह दो भेद हैं। सिद्धांतानुसार विपाकोदयवृत्ति प्रकृतियों का क्षयोपशम यदि होता है तो देशघातिनी का ही, सर्वघातिनी का नहीं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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