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क्षायोपशमिक सम्यक्त्व :- अनन्तानुबंधी कषाय-चतुष्क मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयभावी क्षय और इन्हीं सदवस्थारूप उपशम से तथा देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। ८३ इसको वेदक सम्यक्त्व भी कहते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गल होते हैं। इसीलिए उसे वेदक कहा जाता है। वेदक सम्यक्त्व (क्षायोपशिमक सम्यक्त्व) चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में होता है। इसके बाद श्रेणि प्रारंभ हो जाती है और श्रेणि दो प्रकार की है उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि। अतः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व श्रेणि आरोहण के पूर्व तक ही रहता है और तभी होता है जब सम्यक्त्व मोहनीय का उदय हो। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय सातवें गुणस्थान तकही रहता है। इसीलिए इस सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक चार गुणस्थान ही समझना चाहिये। इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागर है । ८४
औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में अंतर
उपशमजन्य पर्याय को औपशमिक और क्षायोपशमजन्य पर्याय को क्षायोपशमिक कहते हैं।
क्षयोपशम शद्व में दो पद हैं- क्षय और उपशम । क्षयोपशम शद्ब का मतलब कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है। क्षय यानी आत्मा से कर्म का संबंध टूट जाना और उपशम यानी कर्म अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रहकर भी उस पर असर न डालना। इस शाद्विक अर्थ की अपेक्षा क्षयोपशम के पारिभाषिक अर्थ में यह विशेषता है कि बंधावलि
पूर्ण हो जाने पर जब किसी विविक्षित कर्म का क्षयोपशम प्रारंभ होता है तब विविक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यंत के कर्मदलिकों (उदयावलिका प्राप्त या उदीर्णदलिक) का तो प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय होता रहता है, जो दलिक विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यंत में उदय आने योग्य नहीं है। उदयावलिका वहिर्भूत या अनुदीर्ण दलिक (उनका उपशम) (विपाकोदय की योग्यता का अभाव या तीव्र रस से मंद रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे वे दलिक अपनी उदयावलि को प्राप्त होने पर प्रदेशोदय या मंद विपाकोदय क्षीण हो जाते हैं यानी आत्मा पर अपना फल प्रगट नहीं कर सकते या कम प्रगट करते हैं।
इस प्रकार आवलिका पर्यंत के उदयप्राप्त कर्म दलिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और आवलिका के बाद उदय पाने योग्य कर्मदलिकों की विपाकोदय सम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या रस का मंद रस परिणमन होते रहने से कर्म का क्षयोपशम कहते हैं। .
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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