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के समय आयुबंध, मरण, अनंतानुबंधी कषाय का बंध व उदय ये चार बातें नहीं होती हैं। किन्तु उससे च्युत होने के बाद सासादन भाव के समय ये चार बातें हो सकती हैं।
औपशमिक सम्यक्त्व की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। यदि गिर गया तो अर्धपुद्गल परावर्त काल में सिद्धि कर लेता है।
अनिवृत्तिकरण काल के बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीव को स्पष्ट एवं असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है। क्योंकि उस समय मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता। इसलिए जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण व्यक्त होता है। मिथ्यात्व रूप महान् रोग हट जाने से जीव को ऐसा आनन्द आता है, जैसे किसी पुराने एवं भयंकर रोगी को स्वस्थ हो जाने पर। उस समय तत्त्वों पर दृढ श्रद्ध हो जाती है। औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहर्त होती है, क्योंकि इसके बाद मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गल, जिन्हें अन्तरकरण के समय अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय आने वाला बताया है, वे उदय में आ जाते हैं या क्षयोपशम रूप में परिणत कर दिये जाते हैं।
औपशमिक सम्यक्त्व के काल को.उपशान्ताद्धा कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द वाला होता है। उपशान्ताद्धा के पूर्व अर्थात् अन्तरकरण के समय में जीव विशुद्ध परिणाम से द्वितीय स्थितिगत (औपशमिक सम्यक्त्व के बाद उदय में आनेवाले) मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है। जिस प्रकार कोद्रवधान्य (कोदों नामक धान्य) का एक भाग औषधियों से साफ करने पर इतना शुद्ध हो जाता है कि खाने वाले को बिल्कुल नशा नहीं आता। दूसरा भाग अर्द्ध शुद्ध और तीसरा भाग अशुद्ध रह जाता है। उसी प्रकार द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व मोहनीय के तीन पुंजों में से एक पुंज इतना शुद्ध हो जाता है कि उसमें सम्यक्त्व घातक रस (सम्यक्त्व को नाश करने की शक्ती) नहीं रहता। दूसरा पूंज आधा शुद्ध और तीसरा पुंज अशुद्ध ही रह
जाता है।८२
औपशमिक सम्यक्त्व का समय पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार उक्त तीन पुंजों में से कोई एक अवश्य उदय में आता है। परिणामों के शुद्ध रहने पर शुद्ध पुंज उदय में आता है। उससे सम्यक्त्व का घात नहीं होता । उस समय प्रगट होते वाले सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। जीव के परिणाम अर्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुंज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध पुंज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस सम्यक्त्व में चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक कुल आठ गुणस्थान कहे गये हैं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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