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________________ पर्याप्त जीवों में गृहीत पुद्गलों को आहारादि रूप में परिणत करने की शक्ति है और अपर्याप्त जीवों में इस प्रकार की शक्ति नहीं होती हैं।७८ सम्यक्त्व प्राप्ति में आंतरिक व बाह्य कारण सम्यक्त्व परिणाम सहेतुक है। क्योंकि निर्हेतुक वस्तु या तो सदैव एक जैसी रहती है या उसका अभाव होता है। किन्तु सम्यक्त्व परिणाम न तो सब में समान है और न उसका अभाव ही है। इसीलिए सम्यक्त्व परिणाम को सहेतुक माना जाता है। उसके नियत हेतु निमित्त कारण दो प्रकार के हैं -बाह्य और अंतरंग। इनमें से सम्यक्त्व परिणाम का नियत हेतु (आन्तरिक कारण) जीव का भव्यत्व नामक अनादि पारिणामिक स्वभाव विशेष है। जब इस अनादि पारिणामिक भावभव्यत्व का परिपाक होता है, तभी सम्यक्त्व का लाभ हो जाता है और उस समय प्रवचन-श्रवण आदि बाह्य हेतु भी उसके निमित्त कारण बन जाते हैं। इनसे भव्यत्व भाव के परिपाक में सहायता मिलती है। लेकिन सिर्फ प्रवचन-श्रवण, अध्ययन आदि बाह्य निमित्त सम्यक्त्व के नियत हेतु नहीं हो सकते हैं। क्योंकि बाह्य निमित्तों के रहने पर भी अनेक भव्यों को अभव्यों की तरह सम्यक्त्व की प्राप्ती नहीं होती है। अतः भव्यत्व भाव का विपाक ही सम्यक्त्व प्राप्ति का अव्यभिचारी निश्चित कारण है और प्रवचन-श्रवण, अध्ययनादि बाह्य कारण सहकारी मात्र होते हैं। सम्यक्त्व प्राप्ति का आंतरिक कारण :- भव्यत्व भाव होने पर भी अभिव्यक्ति के आभ्यन्तर कारणों की विविधता में सम्त्यक्त्व के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक आदि भेद बनते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व :- अनन्तानुबंधी कषाय- चतुष्क और दर्शनमोहनीयत्रिककुल सात प्रकृतियों के उपशम से प्राप्त होने वाले तत्त्वरुचिरूप आत्म परिणाम को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।७९ इसके दो भेद हैं - १) ग्रंथिभेदजन्य और उपशमश्रेणिभावी • (श्रेणिभावी)। ग्रंथिभेद जन्य औपशमिक सम्यक्त्व अनादिमिथ्यात्वी भव्य जीवों को होता है और उपशमश्रेणि भावी औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें इन चार गुण स्थानों में से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है। परन्तु आठवें गुणस्थान में तो अवश्य ही उसकी प्राप्ति हो जाती है।८० ग्रन्थिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व को प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं।८१ उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का है - करणोपशम और अकरणो-पशम। कर्मों का अन्तरकरण होकर जो उपशम होता है, वह करणोपशम कहलाता है। ऐसा उपशम दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो का ही होता है। इसलिए उपशम भाव के दो ही भेद बतलाये हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क का अन्तरकरण उपशम नहीं होता, इसलिए जहाँ भी इसके उपशम का विधान किया गया है, वहाँ इसका अकरणोपशम ही लेना चाहिए। और भी औपशमिक सम्यक्त्व जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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