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परन्तु
योग्यता रखते हुए भी उसको प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उन्हें ऐसी अनुकूल सामग्री नहीं मिल पाती है, जिससे वे मोक्ष प्राप्त कर सकें। जैसे कि किसी मिट्टी में सोने का अंश तो है, अनुकूल साधन मिलने का अभाव होने पर सोने का अंश प्रगट नहीं हो पाता है। भव्यों के उक्त तीनों प्रकारों को क्रमशः आसन्न भव्य, दूर भव्य और जाति भव्य कहते हैं। जो अनादि तथाविध पारिणामिक भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते, उन्हें अभव्य कहते हैं। संसार में खान से दो प्रकार के पाषाण निकलते हैं - कनक पाषाण और अंधपाषाण । विशिष्ट प्रक्रिया से पाषाण से सोना अलग किया जाता है, उसे कनक पाषाण कहते हैं और जिस पाषाण में सोना अलग करने की योग्यता नहीं वह अंधपाषाण कहलाता है। वैसे ही खेत में उत्पन्न हुए उड़द-मूँग में पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्ति दोनों विद्यमान हैं। किन्तु किसी में पाचन शक्ति की योग्यता साधन सामग्री से आ जाती है और किसी में सामग्री की उपलब्धि होने पर भी नहीं आती। भव्याभव्य का यही स्वरूप है । ७६
जो भी पंचेंद्रिय जीव हैं, वे सभी संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो प्रकार के होते हैं। उनके पर्याप्ता अपर्याप्ता ऐसे दो-दो भेद होते हैं। जो जीव शिक्षा, उपदेश और आलाप के द्वारा कार्य के हिताहित, योग्यायोग्य का निर्णय करके कार्य में प्रवृत्ति करते हैं, वे संज्ञी हैं और उसके विपरीत को असंज्ञी कहते हैं। अर्थात् विशिष्ट मनःशक्ति, दीर्घकालिक संज्ञा का होना संज्ञित्व है और उक्त का न होना असंज्ञित्व है। इसलिये संज्ञायुक्त जीव संज्ञी और संज्ञित्व विहीन जीव असंज्ञी कहलाते हैं । ७७
पर्याप्त नामकर्म के उदयवाले जीवों को पर्याप्त और अपर्याप्त नाम कर्म के उदयवाले जीवों का अपर्याप्त कहते हैं। पर्याप्त नामकर्म के उदय से आहारादि पर्याप्तियों की रचना होती है और अपर्याप्त नाम कर्म का उदय होने पर उनकी रचना नहीं होती है। पर्याप्ति वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और गृहित पुद्गलों को आहारादि के रूप में परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीव में पुद्गलों के उपचय से बनती है। इन गृहीत पुद्गलों का कार्य भिन्न-भिन्न होता है। अतः इस कार्य भेद से पर्याप्ति के निम्नलिखित छह भेद हो जाते हैं - १) आहारपर्याप्ति, २) शरीरपर्याप्ति, ३) इन्द्रियपर्याप्ति, ४) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५) भाषा पर्याप्ति और ६) मन पर्याप्ति। इन छह पर्याप्तियों का प्रारंभ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। उक्त छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार और विकलेन्द्रिय- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पचेन्द्रिय जीवों के मन पर्याप्ति के सिवाय शेष पाँच तथा संज्ञी पचेन्द्रिय जीवों के सभी छहो पर्याप्तियाँ होती हैं।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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