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जीवों को सकलेन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि उनके स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों ही इन्द्रियाँ होती हैं। आगम में त्रस के तीन भेद किये हैं६१ तेउकाइया वाउकाइया औदारिक (ओराला) त्रस प्राणी। ओराला त्रस जीवों के चार भेद किये हैं६२ बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया। स्थावर और त्रस जीवों के भेदों का वर्णन आगे करेंगे।
चार गति के (नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव) जीवों का चौरासी लाख जीव योनि६३ ७ लाख पृथ्वीकाय, ७ लाख अप्काय, ७ लाख तेउकाय, ७ लाख वाउकाय, १० लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, १४ लाख साधारण वनस्पतिकाय, २ लाख बेइन्द्रिय, २ लाख तेइंदिय, २ लाख चउरिदिय, ४ लाख देवता, ४ लाख नारकी, ४ लाख तीर्यच पंचिंदिय और १४ लाख मनुष्य, के जीव का अनन्तानन्त कालचक्र में तब तक ही परिभ्रमण है, जब तक जीवात्मा को कालादिलब्धि का निमित्त प्राप्त न हो। जीव स्वयं ही शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है इसीलिये वह स्वयं ही संसार का कर्ता है और कालादिलब्धि के मिलने पर स्वयं ही मोक्ष का कर्ता है। ६४ कर्मों से बद्ध जीव, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तन - संसार परिभ्रमण का काल अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण शेष रह जाता है, तब प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के योग्य होता है। अर्धपुद्गल परावर्तन काल का प्रमाण स्पष्ट करने के लिये प्रथमतः पुद्गल परावर्तन का लक्षण जानना अत्यावश्यक है। पुद्गल परावर्तन रूप काल अनन्त है। यह अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी के बराबर होता है।६५
पुद्गलपरावर्तन और काल चक्र यह लोक अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं (समान जातीय पुद्गलों के समूह) से भरा हुआ है। ये वर्गणाएं ग्रहण योग्य भी हैं और अयोग्य (अग्रहण योग्य) भी हैं। अग्रहण योग्य वर्गणाएं तो अपना अस्तित्व रखते हुए भी ग्रहण नहीं की जाती हैं। लेकिन ग्रहण योग्य वर्गणाओं में भी ग्रहण और अग्रहण रूप दोनों प्रकार की योग्यता होती है। ऐसी ग्रहण योग्य वर्गणाएं आठ प्रकार की हैं६६ (१) औदारिक शरीर वर्गणा, (२) वैक्रिय शरीर वर्गणा, (३) आहारक शरीर वर्गणा, (४) तेजस् शरीर वर्गणा, (५) भाषा वर्गणा, (६) श्वासोच्छ्वास वर्गणा, (७) मनो वर्गणा और (८) कार्मण वर्गणा।
ये वर्गणाएं क्रम से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती हैं। और इनकी अवगाहना भी उत्तरोत्तर न्यून अंगुल के असंख्य भागों में प्रमाणित होती है।
उक्त ग्रहण योग्य वर्गणाओं में से आहारक शरीर वर्गणा को छोड़कर (आहार शरीर एक भव में अधिक से अधिक दो बार और भव चक्र में चार बार होता है, इसलिये सभी
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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