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________________ कभी त्रस पर्याय पायी ही नहीं है, उन्हें नित्य निगोदिया कहते हैं। जो जीव त्रस पर्याय को धारण करके पुनः निगोद पर्याय में चले जाते हैं, उन्हें चतुर्गति निगोदिया (इतर निगोदिया अथवा बादर निगोद) कहते हैं। जिन जीवों का पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से प्रतिघात नहीं होता। उन्हें सूक्ष्मकायिक जीव माना जाता है और जिनका इनसे प्रतिघात होता है उन्हें स्थूल - (बादर) कायिक जीव कहा जाता है। साधारण वनस्पति की भांति ही प्रत्येक वनस्पति के भी दो भेद हैं५८ १) निगोद सहित और २) निगोद रहित। अथवा (१) सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर और (२) अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर। जिसके आश्रित अनेक निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे प्रत्येक वनस्पति को सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। और जिन प्रत्येक वनस्पति के शरीरों में निगोदिया जीवों का आवास नहीं है उन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं। अथवा (१) जिस प्रत्येक वनस्पति की धारियाँ, फांके और गांठें दिखाई न देती हों, जिसे तोड़ने पर खट से दो टुकड़े सम हो जाय, और बीच में कोई तार वगैरेह न लगा रहे तथा जो काट देने पर भी पुनः उग आये, वह साधारण - सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। यहाँ सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पति को साधारण जीवों का आश्रय होने से साधारण कहा गया है। तथा जिस वनस्पति में उक्त बातें न हों अर्थात जिसमें धारियाँ वगैरेह स्पष्ट दिखाई देते हों, तोड़ने पर समान टुकड़े न हों, टूटने पर तार लगा रह जाये आदि, उस वनस्पति को अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर कहते हैं। (२) जिस वनस्पति की जड़, कन्द, छाल, कोंपल, टहनी, पत्ते, फूल, फल और बीज को तोड़ने पर खट् से बराबर-बराबर दो टुकड़े हो जायें, उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं तथा जिसका समभंग न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। (३) जिस वनस्पति के कंद की, जड़ की, टहनी की अथवा तने की छाल मोटी हो वह अनन्तकाय यानी सप्रतिष्ठित प्रत्येक है और जिस वनस्पति के कंदादि की छाल पतली हो वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। इन दोनों प्रकार की वनस्पति को गोम्मट - सार में सात प्रकार की बताई है।५९ (१) मूलबीज (अदरक, हल्दी, आदि), (२) अग्रबीज (नेत्रबाला आदि), (३) पर्वबीज (ईख, बेंत आदि), (४) कंदबीज (रतालु, सूरण आदि), (५) स्कन्धबीज (सलई, पलास आदि), (६) बीजरूह (धान, गेहूँ आदि) और (७) सम्मूर्छन (स्वयं ही उगती है) । पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के सभी जीव स्थावर कहलाते हैं (स्थिर रहे वे एकेन्द्रिय जीव)। जिसके त्रस नाम कर्म का उदय होता है, उसे त्रस (स्वेच्छा से हलन-चलन कर सके) जीव कहते हैं। उनके भी दो भेद होते हैं।६० १) विकलेन्द्रिय और २) सकलेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय (शंखादि, स्पर्शन रसनेन्द्रिय), त्रीन्द्रिय, (पिपीलिकादि, स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रिय), चतुरिन्द्रिय (भमरादि, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रिय) जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं और मनुष्य देव, नारकी, पशु (तिर्यंच) आदि जैन साधना पद्धति में ध्यान योग । ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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