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________________ इसलिए साधनाक्रम में पहले 'दर्शन' शब्द को रखा गया है; बाद में ज्ञान और अन्त में चारित्र। मतिज्ञान पदार्थ को जानता है। किन्तु सम्यक्त्व के बिना ज्ञान का नाम कुमति और कुश्रुतज्ञान था । वही ज्ञान जिस समय में सम्यक्त्व में परिवर्तित हो जाता है, तो मतिज्ञान से श्रुतज्ञान की संज्ञा पा लेता है । वह भी ज्ञान तो था ही; किन्तु सम्यक्त्व के बिना कुज्ञान था । जैसे ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई कि वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो गया। इन दोनों में कार्य-कारण का संबंध है। सम्यक्त्व कारण है और ज्ञान कार्य है। इसलिए सम्यक्त्व के बाद ज्ञान का क्रम रखा। अज्ञान सहित चारित्र सम्यक् संज्ञा नहीं पा सकता। इसलिए ज्ञान के बाद चारित्र का क्रम रखा गया है । ५५ अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र यही त्रिविध क्रम यथार्थ है । ५६ सम्यग् दर्शन का स्वरूप १) सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व जीव का भ्रमण : - जीव शुभाशुभ कर्म फलों के कारण अनादिकाल से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तनरूप संसार में परिभ्रमण कर रहा है। क्योंकि संसारी जीव के साथ अनादिकाल से कर्मों का संबंध रहा है। इन कर्मों का निमित्त पाकर जीव के विकाररूप परिणाम होते रहते हैं। संसारी जीवों का प्रथम निवास स्थान निगोद है। निगोद के दो भेद हैं : ५७ सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद । आगम एवं अन्य ग्रंथों में स्थूल और सूक्ष्म आदि भेद से जीवों के विभाग किये गये हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक, दोनों ही प्रकार के बादर (स्थूल) जीव आधार के सहारे रहते हैं और छह प्रकार के सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में रहते हैं। बादर नाम कर्म के उदय से बादर पर्याय में उत्पन्न जीवों को बादर कहते हैं और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से उत्पन्न जीवों को सूक्ष्म कहते हैं। सूक्ष्म जीवों के छह प्रकार पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद वनस्पतिकायिक और इतर निगोद वनस्पतिकायिक। ये सभी जीव कभी पर्याप्त तो कभी अपर्याप्त होते हैं। पृथ्वी कायिक से लेकर वायुकायिक तक के जीव बादर और सूक्ष्म दोनों ही प्रकार के होते हैं। किन्तु वनस्पतिकाय के जो दो भेद किये हैं- साधारण और प्रत्येक । उनमें भी साधारण वनस्पतिकाय के दो भेद हैं। अनादि साधारण वनस्पतिकाय और सादि साधारण वनस्पतिकाय । ये दोनों प्रकार के जीव भी बादर और सूक्ष्म होते हैं। शेष सब जीव बादर ही होते हैं। साधारण (समान) नाम कर्म के उदय से साधारण वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं, जिन्हें निगोदिया जीव भी कहते हैं। अर्थात जिन अनन्तानन्त जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास, शरीर और आयु साधारण होती है उन जीवों को साधारणकायिक जीव कहते हैं। साधारणवनस्पति के जो ऊपर दो भेद किये गए हैं; उनमें से अनादिकालीन साधारण वनस्पतिकाय को ही नित्य निगोद कहते हैं और सादिकालीन (आदिकालीन) वनस्पतिकाय को चतुर्गति निगोद अथवा इतर निगोद कहते हैं। जो जीव अनादिकाल से निगोद में ही पड़े हुए हैं, जिन्होंने ११६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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