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चार साधन बतलाए हैं. - ४७- सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र और तप । जहाँ तीन साधन माने गये हैं वहाँ चारित्र के अन्तर्गत ही तप को समाहित कर लिया गया है। कहींकहीं तो ज्ञान और क्रिया दो को ही मोक्ष का साधन कहा गया है, तो ऐसे स्थलों पर दर्शन को ज्ञान स्वरूप ही समझा है। उससे भिन्न नहीं है। ज्ञानयोग और कर्मयोग की समन्वित साधना ही मोक्ष की सच्ची साधना है। अकेले ज्ञान या अकेले क्रिया के साधन से मोक्ष नहीं मिलता। अंधपंगुन्याय की तरह ज्ञान-क्रिया के समन्वित रूप से ही मोक्ष है । ४८
त्रिविध साधना का स्वरूप
साधक विशिष्ट साधन द्वारा साधना करके इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। इन्द्रियविजेता (जितेन्द्रिय) ही मन की शुद्धि करता है, मन शुद्धि से ही समता का आविर्भाव होता है, समता से ही निर्ममत्व की अवस्था प्राप्त होती है, निर्ममत्व अवस्था के शुभ परिणामों से ही साधक की चित्तवृत्ति अन्तर्मुखी होती है। जीव के शुभ-अशुभ- शुद्ध ऐसे तीन भाव हैं। धर्म से परिणत आत्मा शुद्धोपयोग के माध्यम से निर्वाण सुख को प्राप्त करता है और शुभाशुभ भावों में परिणत आत्मा स्वर्ग एवं नरक के सुख दुःख को प्राप्त करता है।४९ अतः अशुभ भावों पर विजय प्राप्त करने के लिए ही, सम्यक् साधना की जाती है। इसी दृष्टि से ज्ञानियों ने त्रिविध साधना को ही प्रधानता दी है। अन्य दर्शनों में भी त्रिविध साधना की ही प्रधानता है। आगमों का कथन है कि दर्शनरहित व्यक्ति को ज्ञान नहीं हो सकता और ज्ञान के बिना चारित्र की प्राप्ती नहीं हो सकती और चारित्र के बिना मोक्ष नहीं तथा मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं। ५० इसलिए साधना के तीन मार्ग बताये हैं। चतुर्थ मार्ग को चारित्र के अंतर्गत ही समाविष्ट किया गया है।
१) साधना क्रम
त्रिविध साधना क्रम में कहीं-कहीं पहले ज्ञान और बाद में दर्शन एवं चारित्र रखा है, और कहीं-कहीं दर्शन को पहले तदनन्तर ज्ञान और चारित्र का क्रम रखा है । ५१ इसका मौलिक अन्तर ज्ञानी और छद्मस्थ की दृष्टि से आगमों में स्पष्ट होता है। आगम में दो शब्द मिलते हैं ५२ 'सर्वज्ञ' और 'सर्वदर्शी'। वैसे ही 'जानना' और 'देखना' इन शद्बों का रहस्य यही है कि सर्वज्ञ (ज्ञानी) को प्रथम समय में ज्ञान होता है और द्वितीय समय में दर्शन, जब कि छथ्मस्थ को प्रथम समय में दर्शन होता है और तदनन्तर ज्ञान । ५३ मन में संदेह निर्माण होगा कि ज्ञान के बिना दर्शन कैसे होगा? दर्शन के पहले ज्ञान होना आवश्यक है और होता भी है; किन्तु यह सामान्य ज्ञान होता है, विशिष्ट नहीं। दर्शन के पहले का ज्ञान अज्ञान रूप होता है। सम्यग्दर्शन के होते ही अज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। आत्मशुद्धि के लिए प्रथम दर्शन की आवश्यकता है। तदनन्तर ज्ञान और ज्ञान की प्राप्ति के बाद सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । ५४ यहाँ 'दर्शन शुद्धि' से तात्पर्य सम्यक्त्व की प्राप्ति है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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